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________________ गहि धाइ (1595), पूरे गोकुल में उत्सव का वातावरण है (1579) : घरनि-घरनि ब्रज होति बधाई सात बरस कौ कुँवर कन्हैया, गिरिधर धरि जीत्यौ सुरराई गर्व सहित आयौ ब्रज बोरन, यह कहि मेरी भक्ति घटाई सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, तब आयौ पाइनि तर घाई कहाँ कहाँ नहिं संकट मेटत, नर-नारी सब करत बड़ाई सूर स्याम अब मैं ब्रज राख्यौ, ग्वाल करत सब नंद दोहाई। गोवर्धन-पूजा केवल कृष्ण-लीला का चमत्कार नहीं है, पर इसके माध्यम से सूर कई संकेत करना चाहते हैं, जिससे उनकी सजग सामाजिक चेतना का बोध होता है (प्रेमशंकर : कृष्णकाव्य और सूर, पृ. 91)। मूल प्रश्न है कि अगोचर देवता का पूजन क्यों ? और फिर आराधन का आधार श्रद्धा हो, भय नहीं। इसीलिए कृष्ण इंद्र को चुनौती देते हैं, जिसका वैचारिक आधार है। इंद्र कभी देवेंद्र थे, देवाधिदेव, पर कालान्तर में उनका स्थान विष्णु ने प्राप्त किया (सुवीरा जायसवाल : ओरिजन एंड डेवलपमेंट ऑफ़ वैष्णविज़्म, पृ. 21)। आगे चलकर जलदेवता के रूप में वरुण को स्वीकृति मिली। कृष्ण एक ऐसी मूर्ति को अपने पुरुषार्थ से खंडित करना चाहते हैं, जो अगोचर है और त्रास दिखाकर शासन करती है। इसके स्थान पर वे सामने उपस्थित गोचर गोवर्धन की पूजन-परंपरा का शुभारंभ करते हैं। इससे कृष्ण के रक्षक व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा होती है, उनकी जय-जयकार होती है और गोपिकाएँ : दधि अच्छत रोचन धरि थारनि, हरषि स्याम-सिर तिलक बनावति (1576)। मेरे विचार से किसी महान काव्य-नायक के संबंध में लोकरंजक-लोकरक्षक का प्रश्न उठाना ही बहुत प्रासंगिक नहीं है। प्रश्न अनुपात का हो सकता है, जिसके मूल में कवि की अपनी सामाजिक दृष्टि सक्रिय रहती है, पर व्यक्तित्व में सौंदर्य की आभा लोककर्म की महानता के बिना प्रतिष्ठित ही कैसे होगी ? उच्चतर मानवमूल्यों से परिचालित, लोक-कल्याण के लिए किए गए कर्म ही तो सौंदर्य बनते हैं। सूर के कृष्ण की कई भूमियाँ हैं और यह सराहनीय है कि कवि ने सौंदर्य-चित्रण, रूपांकन, प्रेम-भाव, लीला आदि के साथ समर्थ सामाजिकता का निष्पादन किया है, जिसे लोकधर्म अथवा लोकमंगल कहा गया। भक्तिकाव्य मूलतः लोकजीवन की पीठिका पर उपजा काव्य है और मध्यकालीन सामंती समाज से टकराते हुए, अग्रसर होता है। कवियों ने अपनी दृष्टि और चेतना की बनावट के अनुसार उसे रचना में प्रक्षेपित किया है। मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं, पर गन्तव्य में अधिक अंतर नहीं प्रतीत होता क्योंकि लोक से लोकोत्तर अथवा उच्चतर मूल्य-संसार की कामना सब कवियों में समान है; जिसे आध्यात्मिकता कहकर संबोधित किया गया, पर यह लोक-सापेक्ष्य है, इसे रेखांकित करना होगा। आचार्य शुक्ल ने तुलसी को काव्य-प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया, इसलिए उन्होंने शृंगार 158 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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