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________________ इसका एक कारण यह कि सूर में महाभारत-प्रसंग गौण है, लीलाएँ प्रमुखता पाती हैं। पर इन्हीं के बीच पूतना, कगासुर, बकासुर आदि का वध तथा कुछ चमत्कारी कार्य हैं। गोवर्धन-प्रसंग पर विशेष रूप से विचार करना होगा जहाँ लोकरंजक-लोकरक्षक का द्वैत ही समाप्त हो जाता है। यों भी काव्य-नायक में सौंदर्य की सार्थकता तभी है, जब वह गुण-संपन्न हो और मुरली-वादन इसका साक्ष्य है, जिसके आकर्षण में सब बँध जाते हैं। गोवर्धन-प्रंसग को सूर ने विस्तार से कहा है-पद 1429 से पद 1605 तक। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी द्वारा संपादित सूरसागर के काशी नागरी प्रचारिणी सभा संस्करण में रासपंचाध्यायी गोवर्धन लीला के बाद आती है। सूर कृष्ण के लोकरक्षक की स्थापना पहले करते हैं, रास-प्रसंग बाद में। भागवत में अध्याय तेईस से अट्ठाईस तक यह प्रसंग है और उनतीस से रासलीला का आरम्भ । सूरसागर में प्रसंग है : नंद महर सौं कहति जसोदा, सुरपति की पूजा बिसराई (1429)। इंद्र गोकुल में कुलदेवता के रूप में पूजित हैं और स्वाभाविक है कि कृषक समाज में जलदेवता की आराधना हो। पर सात वर्ष के बालक कृष्ण को यह स्वीकार नहीं कि अदृश्य देव का पूजन-अर्चन किया जाय और सामने जो गोवर्धन पर्वत है, उसका निरादर किया जाय। बात फैल जाती है कि कृष्ण : सुरपति की पूजा कौं मैटत, गोवर्धन की करत बड़ाई (1438)। कृष्ण का तर्क है : जो चाही ब्रज की कुसलाई तो गोवर्धन मानौ। आखिर सुरपति से क्या मिलता है (1439)। गोवर्धन-लीला के माध्यम से सूरदास कृष्ण के व्यक्तित्व को एक नई दीप्ति देना चाहते हैं कि वे केवल लोकरंजक नहीं, लोकरक्षक भी हैं। कृष्ण गोकुल का आवाहन करते हैं : छाँड़ि देह सुरपति की पूजा, कान्ह कयौ गिरि गोवर्धन तैं और देव नहिं दूजा (1440)। सूरदास ने कृष्ण की इस ललकार को गोकुल के उत्साह में बदल दिया है और वर्णनात्मक प्रसंग को काव्य का रूप दिया है। कई पद इसका बखान करते हैं : अति आनन्द ब्रजवासी लोग आदि । गोवर्धन पर्वत इस आराधन को स्वीकारता है, पर देवाधिदेव इंद्र का अहंकार आहत होता है और वे गोकुल को वर्षा की राशि में जलमग्न कर देना चाहते हैं-लघु प्रलय जैसा दृश्य : कहा होत जल महा प्रलै कौ (1498)। सूर ने इस घनघोर वर्षा का वर्णन कई पदों में किया है, जो इंद्र के कुपित होने का प्रतीक है। ग्वाल-बाल सब पारस्परिक वार्तालाप करते हैं कि कृष्ण ने इंद्र से व्यर्थ ही संघर्ष किया, पर कृष्ण अपने संकल्प को उचित मानते हैं। मेघों की पराजय और स्वयं इंद्र के क्रोध का उल्लेख किंचित् विस्तार से करते हुए, सूर कृष्ण को लोकरक्षक की भूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। वर्षा से रक्षा के लिए कृष्ण गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर उठा लेते हैं (1557)। इस प्रसंग का वर्णन सूर ने कृष्ण-इंद्र के संघर्ष रूप में किया है। कृष्ण ब्रजमंडल के रक्षक बनते हैं और इंद्र की पराजय होती है। कृष्ण गोवर्धन का पूजन दूसरी बार कराते हैं : स्याम कह्यौ बहुरौ गिरि पूजहु, ब्रजजन लिए उबारि (1574)। इंद्र शरणागत होते हैं : सुरपति चरन पर्यो सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 157
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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