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________________ प्रयत्न भी किया है, जबकि इसकी तुलना में अलाउद्दीन, देवपाल, राघव चेतन सब देहासक्ति के सामंती पात्र हैं। रत्नसेन प्रेम के लिए त्याग-तप करना जानता है, जिससे उसके व्यक्तित्व को दीप्ति मिलती है। हीरामन सुग्गे से पद्मावती का रूप-वर्णन सुनकर उसे पाना चाहता है, यह स्वयं में कम चमत्कारी नहीं। पर पद्मावती के नखशिख वर्णन के पूर्व कवि ने 'राजा-सुआ-संवाद खंड' की नियोजना की है, जहाँ हीरामन उसे 'पदुम-गंध ससि बिधि औतारी' कहता है। वह सुवासित, प्रकाशित है, अपने समग्र व्यक्तित्व में एक प्रकार से अवतरण है और हीरामन बार-बार सुगंध और ज्योति का प्रयोग इस प्रसंग में करता है। कवि इस विशिष्ट सौंदर्य को प्रेम-भाव से जोड़ता है : 'पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि।' इस दोहे के ठीक बाद की चौपाई में रत्नसेन का अनुराग-भाव है : 'कठिन प्रेम, सिर देइ तौ छाजा' । वह किसी भी त्याग के लिए तत्पर है और पद्मावती को 'अनूप' मानते हुए, प्रेम-पंथ पर चल पड़ता है। इस पूर्वानुराग और संकल्प के बाद जायसी ने नखशिख वर्णन की नियोजना की है, जिसका विवेचन पद्मावती के प्रसंग में हो चुका है। रत्नसेन के संदर्भ में . यह विचारणीय कि इस रूप-वर्णन के बाद वह 'जोगी-रूप' ग्रहण करता है। जायसी के लिए प्रेम एक योग-साधना है और पद्मावत के प्रमुख पात्र इसे आचरित करते हैं। इस दृष्टि से रत्नसेन का संपूर्ण पंथ प्रेम और संघर्ष की सम्मिलित भूमि पर प्रतिष्ठित है, वह स्थितियों से टकराता है। जोगी खंड से लेकर अंतिम दृश्य तक इसे देखा जा सकता है। बार-बार वह प्रेम का स्मरण करता है, जैसे यही उसका पाथेय है और इसके लिए वह किसी भी संघर्ष के लिए तत्पर है। इस रूप में पद्मावत केवल 'प्रेम-कहानी' नहीं, वह प्रेम की संघर्ष गाथा भी है-मानसिक धरातल से लेकर बाह्य संघर्ष तक । सात समुद्र पार कर, रत्नसेन सिंहलद्वीप पहुँचता है और उसका विश्वास है : पुरुषहि चाहिअ ऊँच हिआऊ। यहाँ वह उन साधारण सामंतों से भिन्न है, जो सब कुछ युद्ध अथवा छल से पाना चाहते हैं। पद्मावती की प्राप्ति के लिए उसका तप है और उसके उच्च भाव हैं। नारियों के जीवन में अंतःसंघर्ष प्रमुख है, पर रत्नसेन को बाहरी संघर्ष भी झेलना है। अतिरंजित प्रतीत होता है, पर रत्नसेन सती होने के लिए भी तत्पर है। 'रत्नसेन-सूली-खंड' में जायसी अपनी उदार धर्मनिरपेक्ष दृष्टि रेखांकित करते हैं। रत्नसेन कहता है : ‘का पूछहु अब जाति हमारी, हम जोगी औ तपा भिखारी।' रत्नसेन पद्मावती को पाकर कहता है : मैं तुम्ह कारन, प्रेम-पियारी, राज छाँड़ि कै भएउँ भिखारी। प्रेम त्याग से मिलता है, यों ही नहीं और पद्मावती उसके 'सत भाव' को स्वीकारती है। रत्नसेन पद्मावती को पाने के बाद भी अन्य संघर्षों से गुजरता है, जैसे लक्ष्मी-समुद्र खंड में। अंतिम संघर्ष राघव चेतन और अलाउद्दीन के छल से है, जिसका कारण यह कि रत्नसेन सहज विश्वासी है, छला जाता है। उसका एक अंतःसंघर्ष भी है-पद्मावती-नागमती को लेकर, जिसका संकेत जायसी ने चित्तौर-आगमन खंड में 128 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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