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________________ हैं। राजमहल की नारी का सामान्यीकृत होना दर्शाता है कि कवि मध्यकालीन नारी की स्थिति के विषय में सजग है और अपनी सहानुभूति उसे देता है। जहाँ तक नारी-वेदना का प्रश्न है, नागमती-प्रसंग अत्यंत करुण और अवसादपूर्ण है। अतिरंजित अंशों को छोड़ दें, जो कई बार रूढ़िगत हैं तो वह पद्मावती से कहीं अधिक पीड़ा का भार झेलती है। उसके निर्माण में जायसी ने करुण रस का संचार किया है, नागमती अपनी विवशता में आहत है : परबत समुद अगम बिच, बीहड़ घन बन ढाँख किमि कै भेटौं कंत तुम्ह, ना मोहि पाँव न पाँख। नागमती वियोग-वर्णन वर्षा से आरंभ होता है, कालिदास के मेघदूत का स्मरण कराता-आषाढस्य प्रथम दिवसे। आरंभ के तीन कड़वक नारी-व्यथा दर्शाते हैं जहाँ नागमती अपने प्रिय के लौट आने की प्रतीक्षा में है। वह सोचती है, उसका तप अकारथ नहीं जाएगा : तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत। ऋतुओं से गुजरते हए नागमती प्रकृति-दृश्य देखती है : वर्षा का जल, कार्तिक की चन्द्रिका, वसंत की आम्रमंजरी आदि। पर इसी के भीतर से उभरती है, नागमती की वियोग पीड़ा, जहाँ वह अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए, अपने प्रिय रत्नसेन को संबोधित करती है। ऋतु वर्णन की परंपरा प्राचीन है, जिसमें वाल्मीकि जैसा प्रभावी प्रकृति-वर्णन है। कालिदास ने ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक उसका निर्वाह 'ऋतुसंहार' में किया है, हर ऋतु को एक सर्ग में वर्णित करते हुए। प्रकृति के माध्यम से यहाँ उन्मुक्त श्रृंगार है, पूरे विस्तार में : तपस्वी भी विचलित हो जाते हैं : आसव से सुवासित स्त्रियों का कमल-मुख, लोध्र जैसे अरुणनेत्र, नव कुरबक प्रसून से सज्जित केशपाश, वक्ष-नितंब आदि (वसंत)। जीवन-दृष्टि का अंतर ऋतुओं के प्रति कवि-संवेदन को निर्धारित करता है, जैसे तुलसी की चौपाई की आरंभिक अर्धाली प्रकृति से संबद्ध है, पर दूसरे ही अंश में वे नैतिकता का प्रवचन करते हैं, जिससे दृश्य खंडित होता है। आरंभ की पहली चौपाई में राम सीता का स्मरण करते हैं : घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रियाहीन डरपत मन मोरा। पर आगे के पूरे प्रसंग में प्रकृति-दृश्य से नैतिक निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं, उत्प्रेक्षा (जिनि, जासु, जनु) के सहारे : क्षुद्र नदी भरि चलीं तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई अथवा कृषी निरावहिं चतुर सुजाना, जिमि बुध तजहिं मोह मद माना (किष्किंधाकांड)। पर जायसी संवेदन-संपन्नता से नागमती-प्रसंग को मार्मिकता देते हैं, जहाँ नारी-पीड़ा प्रधान है। सहचरी है, ग्राम-प्रकृति जिसे लोकजीवन से संबद्ध कर प्रस्तुत किया गया है। प्रकृति-दृश्य नागमती की व्यथा को उद्दीप्त करते हैं, वह उसमें सम्मिलित है, इस दृष्टि से कि बार-बार प्रिय का स्मरण करती है : भा भादौं अति दूभर भारी, कैसे भरौं रैन अँधियारी; भा परगास, कांस बन फूले, कंत न फिरे बिदेसहि भूले; अबहूँ निठुर आउ एहि बारा, परब देवारी होइ संसारा; बिहरत हिया करहु पिय टेका, दीठि-दवंगरा मेरवहु एका, आदि। पूरा परिवेश खुली ग्राम-प्रकृति का है, जायसी जिसके मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 125
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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