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________________ दिया है और उपसंहार का आरंभ दूसरे दोहे से करते हैं : मुहमद यहि कवि जोरि सुनावा, सुना जो पेम पीर गा पावा । यह अंश क्षेपक हो, तो कोई कठिनाई नहीं पर यदि जायसी ने ही इससे अन्योक्ति - संकेत करने का प्रयत्न किया है, तब भी यह कवि का मूल आशय नहीं है, प्रकारांतर है । कविता में आशय उसके मूल में निहित रहता है और निष्कर्षात्मक टिप्पणी गौण ही कही जाएगी। कई बार दार्शनिक-वैचारिक दबावों की भी विवशता होती है। प्रसाद ने 'कामायनी' के आमुख में लिखा कि 'यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है । इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।' बस फिर क्या था हिंदी आलोचना में रूपक तत्त्व को लेकर कई प्रयत्न हुए। ऐसी दुर्घटनाएँ अतिरिक्त उत्साह से भी होती हैं, जब कविता का मूल आशय पृष्ठभूमि में चला जाता है तथा अवांतर प्रश्न सामने आ जाते हैं । पद्मावत की कथा के केंद्र में मनुष्य है, अपनी क्षमताओं, दुर्बलताओं के साथ, जिसके निर्माण में एक ओर सामंती परिवेश है, दूसरी ओर उसके अतिक्रमण में सजगता के साथ संलग्न कवि की प्रतिभा, जो राग-भाव से परिचालित है, विवेक-संपन्न रागात्मकता । हीरामन सुग्गा पद्मिनी के रूप का सादर स्मरण करते हुए कहता है : औ पाएउं मानुष कै भाषा, नाहिं त पंखि मूठ भर पांखा ( राजासुआ - खंड)। मनुष्य की भाषा ही पक्षी की पूँजी है, नहीं तो उसके पास केवल मुट्ठी भर पंख हैं । कई प्रश्नों के बीच जायसी के समाजदर्शन के संदर्भ में यह प्रश्न प्रासंगिक कि उन्हें कथाकाव्य की सुविधा थी, पर उनमें समय - समाज किस रूप में आए हैं। कोई यथार्थ उभरा है क्या और यदि हाँ तो किस रूप में ? उनमें कबीर जैसी प्रतिरोध - प्रवृत्ति न थी, पर अपने समय को कहे बिना तो वे परम काल्पनिक हो जाते । जायसी ने ऐसी कथा ली जिसके दो प्रमुख केंद्र हैं - सिंहल द्वीप और चित्तौड़ । निश्चय ही जिस रूप में सिंहल द्वीप को गढ़ा गया है, वह विशिष्ट है, लगभग कवि - कल्पित, क्योंकि वहाँ पद्मावती वास करती है जिसे जायसी अपनी पूरी रागात्मकता से गढ़ते हैं : धनि सो दीप जहँ दीपक बारी, औ पदमिनि जो दई सँवारी ( सिंहलद्वीप-वर्णन, खंड) । विधाता ने उसे अपने हाथों सजाया-सँवारा है, वह सौंदर्य की सीमा है : का सिंगार ओहि बरनौं राजा, ओहिक सिंगार ओही पै छाजा (नखशिख खंड ) । सिंहल द्वीप कवि-कल्पित है, एक प्रकार से कवि का 'युटोपिया' और इस धुन में वे उसमें सब कुछ समो देते हैं। पर इसी के भीतर सामंती - समाज की छवियाँ भी हैं, जो मध्यकाल का संकेत करती हैं : अभेद्य गढ़, छप्पन कोटि कटक दल, सोलह सहस घुड़सवार, सात सह हस्ती आदि। हाट के वर्णन से सामंती संपन्नता का बोध होता है : रतन पदारथ मानिक मोती, गढ़ की सुरक्षा के पूरे प्रयत्न हैं, जिसके भीतर महल है : साजा राजमंदिर कैलासू, सोने का सब धरति अकासू । यहीं रनिवास है, मध्यकालीन हरम : मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 115
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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