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मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु
मलिक मुहम्मद जायसी (1464-1542) कबीर की तरह भक्तिकाव्य के विशिष्ट स्वर हैं, इस दृष्टि से कि वे ‘सांस्कृतिक-सौमनस्य' का दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। परंपरा निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325) के शिष्य अमीर खुसरो (1253-1325) से जायसी के पूर्ववर्ती सूफी कवियों मुल्ला दाऊद (चंदायन, 1379), कुतुबन (मृगावती, 1503) आदि से होती हुई जायसी (पद्मावत, 1540) तक आती है। समाजदर्शन की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उदार सूफ़ियों की जिस परंपरा को फ़ारस में विकास मिला, वह भारत आई और रचना में इसकी भूमिका है। फारसी में मुहम्मद इब्ने फरीदुद्दीन अत्तार (1120-1230), जलालुद्दीन रूमी, शेख सादी, हाफ़िज़ आदि बड़े नाम हैं और इनमें कवयित्री राबिया भी है, जिसका समय आठवीं शताब्दी माना जाता है। भारत में जब सूफी संप्रदाय आया तो उसके साथ उदार पंथ और समृद्ध रचनाशीलता की परंपरा थी। मुईनुद्दीन चिश्ती 1192 में दिल्ली आए और उन्होंने सभी जातियों को अपनी आध्यात्मिकता से प्रभावित किया। निज़ामुद्दीन औलिया भी महत्त्वपूर्ण संत हैं और संयोग कि उनकी तथा अमीर खुसरो की मृत्यु एक ही वर्ष 1325 में हुई। विद्वानों ने भारत के चार प्रमुख सूफी संप्रदायों का विशेष उल्लेख किया है : चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी और नक्शबंदी। भारत में सूफी संप्रदाय के आगमन से सांस्कृतिक संवाद का नया वातावरण बना और विद्वान इस्लामी एकेश्वरवाद तथा भारतीय अद्वैतवाद की चर्चा विशेष रूप से इस संदर्भ में करते हैं। इस नए सांस्कृतिक सौमनस्य स रचनाशीलता को गति मिली, इसमें संदेह नहीं। भारतीय भक्तिकाव्य को उदार दिशाएँ मिलीं और सूफ़ियाना अंदाज़ गुरु नानक (1469-1538), गालिब (1797-1869), इकबाल (1875-1938), यहाँ तक कि फिराक (1896-1982) तक में देखा जा सकता
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