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हे भगवन्! आप स्थिर आसन बाध कर तथा नेत्र अन्द कर क्या चिन्तन कर रहे हैं और उस चिन्तन का फल क्या है? यह कहिये क्योंकि आप जैसे महानुभावों का चरित निष्फल नहीं होता है।।१२।।
महाबुद्धिमान मुनिराज ने अपने हृदय में उस चण्डकर्मा को भव्य जान कर इस प्रकार कहा कि संसारसागर को तैरने की इच्छा करने वाले मेरे द्वारा शरीर से पृथक् कर इस आत्मा का चिन्तन किया गया है।।१३।।
__ महामुनि के ये वचन सुनकर वह चण्डका पुनः इस प्रकार बोला कि निश्चय से शरीर और आत्मा में तो मुझे कोई भेद नहीं जान पड़ता। इस बात को मैं बिहार को कहता हूँ : गैसे कदादित अन्ना बड़े नोर को पड़ कर मैंने उसके टुकड़े-टुकड़े किये परन्तु मुझे एक परमाणु बरावर भी जीव दिखायी नहीं दिया। यदि शरीर से जीय पृथक् होता तो अवश्य दिखायी देता ।।१४-१५ ।।
तथा दूसरी बात यह है कि एक बार एक बोर को मैंने तराजू से पहले तौल कर फिर मारा और मारने के बाद पुनः तौला तो वह उतना ही रहा जितना पहने था। यदि शरीर से जीव पृथक् है तो जीव के निकल जाने पर उसे कम हो जाना चाहिये था। १६ ।।
इसी तरह एक बार एक चोर को कुटिया में प्रविष्ट कर बाहर से लाख का ऐसा लेप लगा दिया कि कहीं छिट नहीं रहा। समय व्यतीत होने पर जब देखा तो केवल शरीर ही दिखा, जीव के निकलने का मार्ग नहीं दिखा इसलिये जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, यह मिथ्या कहा जाता है। १७ ।।