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जब स्त्रिया शाखाओं को पकड़ कर फूलों के गुच्छे तोड़ने लगी तब प्रमरों का जो शब्द उत्पन्न हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानों वृक्षों द्वारा किया हुआ वेदना का शब्द ही था अर्थात् उनके रोने की आवाज ही थी।।६।।
वन में कितने ही वृक्ष फूलों की शाखाओं में स्त्रियों की अवलम्बनता को प्राप्त हो रहे थे अर्थात् वन में कितनी ही स्त्रियाँ वृक्षों की पुष्पित शाखाओं को पकड़ कर खड़ी थीं। उस समय वे वृक्ष उत्तम स्त्रियाँ प्रदान करने वाले कल्पवृक्षों के समान सुशोभित हो रहे थे। भावार्थ - जिस प्रकार भाजांग, वरत्रांग तथा मद्यांग आदि नाम के कल्पवृक्ष होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष वराङ्गनाङ्ग कल्पवृक्षों के समान जान पड़ते थे।।७।।
कितनी ही वारांगनाएँ लतागृह में बड़े हर्ष से पल्लवों की शय्या पर शयन कर रही थीं। वसन्तोत्सब से प्राप्त रागसम्पत्ति के द्वारा वे ऐसी जान पड़ती थीं मानों उस समय सब ओर से पल्लवित - पल्लवों से व्याप्त ही हो रही थीं ।।८ ||
राजा यशोमति अपनी कुसुमावली नामक प्रिया को आगे कर वृक्ष के नीचे निर्मित फूलों की शय्या पर, चारों ओर स्त्रियों के मुखों से निकले वसन्त- गीतों को सुनता हुआ कीड़ा कर रहा था ।। ||
उस समय वह चण्डकमां नामका चाण्डाल चारों ओर से यन को शुद्ध करता हुआ हिंसक जन्तुओं तथा चोरों को दूर हटा रहा था कि उसने एक वृक्ष के नीचे विराजमान अकम्पन्न नामक अतिशय सुन्दर महामुनिराज़ को देखा ।।१०।।
ध्याननिमग्न चित्त से विराजमान उन मुनिराज के चरणों में नमस्कार कर विनीत चण्डकर्मा ने जानने की इच्छा से उनसे इस प्रकार पूछा। ठीक ही है क्योंकि भव्यतारुपी गुण जीव को कल्याणमार्ग में संलग्न करता ही है।।१५।।