________________
“हमारी कुल परम्परा में होने वाले राजाओं का जिनधर्म में सुदृढ़ विश्वास है। उस जिनधर्म में हिंसा अत्यन्त निन्दनीय तथा नरकादि गतियों के दुःख का कारण कही गयी है || १८ ||
"हे देवि ! पुत्रस्नेह के कारण मेरे विषय में ऐसे वचन फिर न कहें।" राजा के इस वचन से कुपित होती हुई चन्द्रमती पुनः बोली ।।१६ ।।
" अच्छा, मेरे वचन का उल्लङ्घन हो जाओ और तुम्हारा यह मत कि अहिंसा धर्म ही पूज्य है वह भी रहा आये, तुम अन्य प्रकार से अर्थात् धान्य के चूर्ण से निर्मित मुर्गे की हिंसा के द्वारा देवी को संतुष्ट कर लो ।। २० ।।”
इस प्रकार के बचन प्रतिसमय कहने वाली माता का आग्रह जान कर वह विचार करने लगा कि मैंने कड़ा तो कुछ अन्य था और इस समय यह अन्य कुछ आ पड़ा है, अब मैं क्या करूँ ? ||२१||
भाता का वचन अस्वीकृत करना
है औरों का घात करना भी निन्दनीय हैं, खेद की बात है कि किस कर्म से मेरा चित्त इस संकट में आ पड़ा है ।। २२ ।।
चेतन की मूर्ति का घात करना भी चेतन का ही घात है क्योंकि श्रेष्ठ मुनियों ने कमों का आस्रव अभिप्राय विशेष ही कहा
है
। १२३ ।।
इस प्रकार बार-बार विवेक रस का स्मरण करने पर भी वह नयहीन राजा मातृभक्ति से शीघ्र ही प्रेरित होता हुआ माता के साथ चण्डिका के उच्चतम मन्दिर को गया । । २४ ॥
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष सम्बन्धी अष्टमी तिथि मंगलवार के दिन राजा यशोधर ने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर तथा मस्तक झुका कर चण्डिका को नमस्कार किया ।। २५ ।।
वहाँ चित्र की कुशलता से जिसमें दैव का आरोप किया गया था ऐसे कृत्रिम मुर्गे को उसने अपनी तलवार के अग्रभाग से यह कह कर मारा कि हे देवि ! संतुष्ट होओ, तुम्हारे लिये यह बलि अर्पित है ।। २६ ।।
३÷