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फिर प्रातःकाल के समय तुम्हारे मुखकमल पर म्लानता क्यों है? बेटा! इस समय तुम्हारे म्लान भाव को देखकर मेरा हृदय हर्षरहित होकर क्षार से जले हुए के समान दुखी हो रहा है।।६।।
तदनन्तर वैभव के द्वारा इन्द्र की तुलना करने वाले राजा यशोधर मे माता से इस प्रकार कहा कि हे देवि! तुम्हारे अमृतमय आशीर्वाद से मेरा सभी कुछ कल्याणरूप है।।१०।।
किन्तु हे देवि! आज रात्रि में मैंने स्पष्ट देखा है कि भूमण्डल में सर्वश्रेष्ट लक्ष्मी को धारण करने वाले चन्द्रमा को छोड़कर कान्ति अन्धकार के साथ संगम कर रही है।।११।। ___मैंने इस जन्म में सोते हुए भी एक बार भी वैसा प्रसङ्ग नहीं देखा है।
वह दृश्य मेरे मन में कीलित होकर बहुत भारी दुःख को विस्तृत कर रहा ... है।।१२।। .
अपनी स्त्री के दुश्चरित्र को सूचित करने वाले राजा के उस वचन को स्वप्नमात्र ही समझ कर अज्ञानी माता संभ्रम से यह वचन बोली ।।१३।।
“बेटा! इसका प्रतिकार करो, यह स्वप्नदर्शन सचमुच ही दुष्ट है, शीघ्र ही चण्डिका की पूजा करनी चाहिए क्योंकि यह संतुष्ट होने पर विघ्न को शान्त करने वाली है।।१४ ।। "
"तुम उस चण्डिका के मन्दिर में अपने हाथ की तलवार के अग्रभाग से शीन ही भेड़ का घात करो। उस बलि से वह सन्तुष्ट हो कर शीघ्र ही स्वप्न के दोष को नष्ट कर देगी ।।१५॥"
माता ने यह कहा परन्तु दयालु राजा ने दोनों कानों के छिद्रों को ढक कर कहा कि हे देवि! तुम्हें इस प्रकार के विचारशून्य तथा अधर्मयुक्त वचन कहना उचित नहीं है।।१६ ।। ___“निश्चय से मनुष्य का जीवन आज कल का है, इसके लिये किसी जीव के शरीर का घात करने से आत्मा में मरणोत्तरकालिक बहुत भारी दुःख होता है उसे मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?।।१७।।"
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