________________
तदनन्तर बुद्धिमान् अभयरुचि क्षुल्लक ने उसका उत्तर दिया। उत्तर देते समय वे यचन रूपी किरणों के द्वारा उसके दुरन्त-दुःखकारक पाप रूपी अन्धकार को नष्ट कर रहे थे।।५२ ।।
हे राजन्! हम दोनों का चरित धार्मिक जनों के लिए रुचता है और आप अधर्मरसिक हैं - अधर्म से प्रीति करने वाले हैं इसलिये क्या कहा जाये?।।५३ ।।
विपरीत प्रकृति गुणदर्शन को सहन नहीं करती है अर्थात् विरुद्ध स्वभाव बाला मनुष्य किसी के गुण नहीं देखता है। ठीक ही है क्योंकि पित्तचर वाले को दूध मीठा नहीं लगता है।।५४।। ___इसलिए हमारी कथा रहने दो, अपने लिए जो हितकारी हो वह करो, हमारे कर्म के अनुरूप जो हो यह हो, हम तैयार हैं ।।५५ ।।
अभयरुचि के द्वारा इस प्रकार कहे हुए राजा ने तलवार फेंक हाथ जोड़ कर पुनः आग्रह किया। तब कुमार भी यह कहने लगे।।५६ ।।
उस में पूर्व सभा की सरकार ने इस कप कमल की बोडियों से धर्मामृत रूपी रस को चुवाने वाले बालक रूपी चन्द्रमा की पूजा की। भावार्थ - सभा में स्थित सब लोगों ने हाथ जोड़ कर क्षुल्लक अभयरुचि की पूजा की।।५७।। ___ अभयरुचि ने कहा कि हे राजन! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा हुआ जो आपने धर्ममार्ग में युद्धि लगायी । टीक ही है क्योंकि कान पाकर प्रकट हुआ भव्यत्वगुण मनुष्यों को हितबुद्धि करता ही है।५८ ।। ___ इसलिये धर्मामृत को झराने वाली मेरी श्रेष्ठ सूक्ति में चित्त स्थिर करो क्योंकि श्रद्धान की बुद्धि से सुनी गयी श्रेष्ट सूक्ति इस समरत दुःख को समाप्त कर देती है।।५।।