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व्रत कथा कोष
तो त्रयोदशी और पूर्णिमा को भी एकाशन किया जा सकता है। परन्तु चतु. र्दशी को उपवास करना आवश्यक है । प्रधानरूप से इस व्रत में तीन उपवास लगातार करने का नियम है। त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा इन तीनों तिथियों में व्रत, पूजन और स्वाध्याय करते हुए उपवास करना चाहिए । अतः इस व्रत के तीन दिन बताये गये हैं । एकाशन और संयम के दिन मिलाने से वह पांच दिन का हो जाता है ।
___ यदि रत्नत्रय व्रत की प्रधान तीन तिथियों त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा में से किसी एक तिथि की हानि हो तो क्या करना चाहिए ? क्या तीन दिन के बदले में दो ही दिन उपवास करना चाहिए या एक दिन पहले से उपवास कर व्रत को नियत दिनों में पूर्ण करना चाहिए । सेनगण और बलात्कारगण के प्राचार्यों ने एकमत होकर रत्नत्रय व्रत की तिथियों का निश्चिय करते हुए कहा है कि तिथि की हानि होने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिए। किंतु इस प्रत के संबंध में इतना विशेष है कि चतुर्दशी का उपवास रसघटिका प्रमाण चतुर्दशी के होने पर ही किया जाता है। यदि ऐसा भी अवसर आवे जब उदयकाल में चतुर्दशी तिथि न मिले तो जिस दिन घट्यात्मक मान के हिसाब से अधिक पड़ती हो, उसी दिन चतुर्दशी का उपवास करना चाहिए । इस व्रत की समाप्ति के लिए प्रतिपदा का रहना भी आवश्यक माना गया है । जिस दिन प्रतिपदा उदयकाल में छः घटी प्रमाण हो अथवा उदयकाल मे छः घटी प्रमाण प्रतिपदा के न मिलने पर घट्यात्मक रूप से ज्यादा हो उसी दिन महाभिषेकपूर्वक व्रत की समाप्ति की जाती है।
आचार्य सिंहनन्दी ने रत्नत्रय व्रत की तिथियों का निर्णय करते समय स्पष्ट कहा है कि व्रत में किसी प्रकार का दोष न आवे, इस प्रकार से व्रत करना चाहिए। तिथिवृद्धि होने पर एक दिन अधिक व्रत करना ही पड़ता है, परंतु चतुर्दशी के दिन प्रोषधोपवास और प्रतिपदा के दिन अभिषेक करना परमावश्यक बताया गया है । इन दोनों तिथियों को टलने नहीं देना चाहिए । चतुर्दशी को मध्यान्ह में विशेष रुपसे 'ॐ ह्रीं सम्यगदर्शन ज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस मंत्र का जाप करना चाहिए । मध्यान्ह काल का प्रमाण गणित से लेना चाहिए - यथा चतुर्दशी के दिन दिनमान का प्रमाण