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व्रत कथा कोष
ऐसा कहकर मुनिराज ने व्रत का स्वरूप कह सुनाया, तब उस राजकुमारी व्रत ग्रहण किया, सब लोग आनन्दित होकर नगर में वापस लौट गये, उस राजकन्या ने अच्छी तरह से व्रत को पाला, अन्त में व्रत का उद्यापन किया, व्रत के प्रभाव से उसका गूंगापन दूर हो गया, अच्छी तरह चलने लगी, उसका कुबड़ापन भी दूर हो गया, सुख से रहने लगी। उस कन्या का विवाह प्रवन्ति देश के राजा शत्रुञ्जय के पुत्र सुरराज के साथ कर दिया, कुछ काल राज्यसुख भोगकर आर्यिका माताजी के संग में जाकर आर्थिका व्रतों को ग्रहरण कर लिया और घोर तपश्चरण कर अन्त में समाधिमरण से स्वर्ग में देव हुई, वहां से चयकर चक्रवर्ती हुआ, कुछ समय भोगों को भोगकर जिनदीक्षा ग्रहण कर मोक्ष सुख को पा लिया ।
त्रेपन क्रिया व्रत कथा
इस व्रत में श्रावक के आठ मूल गुणों की विशुद्धि के निमित्त आठ प्रष्टमियों के आठ उपवास, पांच अणुव्रतों की विशुद्धि के लिये पांच पञ्चमियों के पांच उपवास; तीन गुणवतों की विशुद्धि के लिये तीन तृतीयानों के तीन उपवास; चार शिक्षाव्रतों की विशुद्धि के लिये चार चतुर्थियों के चार उपवास; बारह तपों की विशुद्धि के लिये बारह द्वादशियों के बारह उपवास साम्यभाव की प्राप्ति के निमित्त प्रतिपदा का एक उपवास; ग्यारह प्रतिमाओं की विशुद्धि के लिये ग्यारह एकादशियों के ग्यारह उपवास; चार प्रकार के दानों के देने के निमित्त चार चतुर्थियों के चार उपवास; जल छानने की क्रिया की विशुद्धि के लिये प्रतिपदा का एक उपवास एवं रत्नत्रय की विशुद्धि के लिये तीन तृतीया तिथियों के तीन उपवास; इस प्रकार कुल ४३ उपवास किये जाते हैं । व्रत के दिनों में णमोकार मन्त्र का जाप प्रतिदिन १००८ बार या कम से कम तीन माला प्रमाण करना चाहिये । व्रत के दिनों में भी शीलव्रत का पालन करना आवश्यक है ।
आषाढ़ शुक्ल अष्टमी को स्नानकर शुद्ध होकर मन्दिरजी में जावे, प्रदक्षिरापूर्वक भगवान को नमस्कार करे, शान्तिनाथ की प्रतिमा यक्षयक्षि सहित लेकर पंचामृताभिषेक करे, प्रष्टद्रव्य से पूजा करे, पंचभक्ष्य चढ़ावे, श्रुत, गुरु, यक्षयक्षि, क्षेत्रपाल इन सबकी यथायोग्य पूजा करे ।