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व्रत कथा कोष
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तब वे विप्र से बोले - महाराज ! अब हम नगर की ओर नहीं जाते हैं हमारे पिताजी ने संसार छोड़कर जिस मार्ग को अपनाया है वही मार्ग हमारा है, इसलिए आप नगर में जाकर भागीरथ से कह दें कि वे हमारी चिन्ता न करें। ऐसा कहकर सबने दृढधर्मकेवली के पास जाकर अपने पिताजी के समान जिनदीक्षा धारण की ।
बाद में उस विप्र ने अयोध्यापुरी में प्राकर भागीरथ को बीती हुई सब बातें बतायी, यह सुनकर उसको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ । परन्तु पीछे राज्य देखने वाला कोई भी नहीं था, अतः वह श्रावक के व्रत लेकर घर में ही पालन करने लगा । फिर वह ब्राह्मण वेषधारी देव उस सगर चक्रवर्ती के पास गये । उन्हें नमस्कार कर उन्होंने कहा - हे मुनिवर्य ! बहुत बड़ा अपराध किया जो प्राप क्षमा करें। मैं सेवक हूं यह सब मैंन आपको सन्मार्ग में लगाने के लिए किया था । तब सगर बोले- इसमें क्षमा करने का तुमने कौनसा अपराध किया है । उल्टा तुमने मेरे पर उपकार किया है, मित्र-स्नेह के कारण तुमने जो उपकार किया है वैसा करने में कौन समर्थ है | आप श्री जिनेश्वर के सच्चे भक्त हो । यह सब सुनकर उस मरिण - केतु को बहुत ही आनन्द हुआ । मणिकेतु भक्ति से सबको वन्दना करके घर गया ।
मैंने
वह मुनि संघ विहार करते-करते श्री सम्मेदशिखरजी पर प्राया, वहां पर उन मुनिमहाराजों ने कठोर तप किया जिससे कर्मक्षय कर मोक्ष गये । यह बात जब भागीरथ राजा ने सुनी तो उसने भी अपने पुत्र वरदत्त को राज्य देकर केलाश पर्वत पर जाकर शिवगुप्त मुनि के पास दीक्षा ली ।
वे भागीरथ विहार करते-करते उस नदी के तट पर आये वहां प्रतिमा योग श्रातापन योग वगैरह से तपश्चर्या की । उससे उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ यह जानकर देव वहां प्राये । उन्होंने उनके चरणों का अभिषेक किया जिससे बहुत ही पानी बहकर आया तो लोग उसी को गंगा नदी कहने लगे और उसी को पवित्र समझ कर उसमें स्नान करने लगे ।
फिर वे भागीरथ मुनिराज शुक्लध्यान के योग से सर्व कर्मों का नाश कर मोक्ष गये और वहां अनन्त सुख का अनुभव करने लगे । ऐसा पूर्व जन्म में किये गये व्रत का माहात्म्य है |