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व्रत कथा कोष
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पांचवें दिन ॐ ह्रीं अहं श्री साम्राज्य परमस्थान प्राप्तये श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नमः।
छठे दिन ॐ ह्रीं मह अर्हन्त्य परमस्थान प्राप्तये श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।
सप्तमी को "ॐ ह्रीं प्रहं श्री निर्वाण परमस्थान प्राप्तये श्री वीर जिनेन्द्राय नमः इस मन्त्र का जाप करना चाहिये, व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करना चाहिये।
इस व्रत का दूसरा नाम परमस्थान व्रत है। वे स्थान सात हैंसज्जाति, सद्गृहस्थल, परिव्राज्य, श्री सुरेन्द्र, साम्राज्य, अर्हन्त्य और श्री निर्वाण । इस परमस्थान की प्राप्ति के लिये उस दिन उपवास या एकाशन करना चाहिये।
कथा पहले इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिण में मिटलिका नाम की एक नगरी थी । उसका राजा वारिषेण था, उसने अपनी सम्पत्ति से कुबेर को और सौन्दर्य से चन्द्रमा को भी लजा दिया था।
वहां का सेठ नंदिमित्र था । वह स्वभाव से ही मृदु और धार्मिक था । उसका पूरा समय धर्मध्यान में बीतता था। एक बार उस नगर में ज्ञानसागर नामक मुनि विहार करते हुये पाये । उनका दर्शन करने के लिये श्रेष्ठी दम्पति गये । प्राचार्य महाराज के मुख से धर्म श्रवण किया और मेरी शक्ति के अनुसार मैं कौनसा व्रत धारण कर सकता हूं ऐसा उसने पूछा । तब मुनि महाराज ने उन्हें सप्त परमस्थान का माहात्म्य बताया । उन दोनों ने वह व्रत लिया। यह व्रत कौन-कौन किये ? मुनि महाराज ने उन्हें बताया
इस भरत क्षेत्र में नेपाल देश में ललितपुर नामक नगरी है। वहां राजा भूपाल राज्य करता था, उसको कोई संतान नहीं थी अतः वह दुःखी था । एक बार विहार करते-करते एक मुनि महाराज वहां आये । तब राजा अपने परिवार सहित उनके दर्शन के लिये गया। तब धर्म श्रवण कर के राजा ने प्रश्न पूछा कि महाराज हम मुनिदीक्षा कब लेंगे ? तब महाराज ने बताया कि जब तुम्हें पुत्रप्राप्ति होगी तभी