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व्रत कथा कोष
सुनत मात्र व्रत को विस्तार, पाप अनन्त हरे तत्कार | जे कर्ता क्रमते शिव जांय, और कहा कहिये अधिकाय || दोहा
जम्बूद्वीप विषें इहां,
भरत क्षेत्र परधान ।
तहां देश काशी लसे, पुर वाराणसि मान ॥ चौपाई पद्मनाम जाको भूपार, कीमों वसुमद को परिहार । सप्तव्यसन तज गुरण उपजाय, ऐसे राज करे सुखदाय ।। श्रीमती जाके वर नार, निजपतिकों प्रतिही सुखकार । एक समै वनक्रीड़ा हेत, जावत थी निजभूति समेत ।। पुर- समीप में ही जब गयो, निजमन मांहि आनन्द लयो । तब ही एक मुनिश्वर सार करि मासोपवास भवतार || प्रशनकाज जाते मगि जोय, रानी सों भाखे नृप सोय । तुम जानो देश्रो प्रहार, कीजो मुनि की भक्ति अपार ॥ यों सुन रानी मन यो धरयो, भोगों में मुनि अन्तर करयो । दुखकारी पापी मुनि श्राय, मेरो सुख इन दियो गमाय ॥ मनही में दुःखी प्रति घनो, प्राज्ञा मान चली पति तनी । जाय कियो भोजन तत्काल, प्रागे और सुनो भूपाल || भूपत के ही घर मुनि गयो, रानी प्रशन दुखद निरमयो । कड़वी तुम्बी को जुग्रहार, दियो मुनीश्वर कों दुखकार ।। दोहा
पुनि गुरु से योंशिष कहे, अब किमि इस श्रघ जाय । मुनि बोले जिनधर्म को, धारे पाप पलाय ।। चौपाई गुरुशिषवचन सुतायों सुनो, उपशमभाव सुखाकर गुनो । पञ्च अभख फल त्यागे जबे, प्रशन मिले लागो शुभतबै ॥
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