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व्रत कथा कोष
अर्थः- मैं क्रम से तिथिनिर्णय और व्रतनिर्णय को कहता हूँ । इस समय व्रत के लिए छह घटी प्रमाण तिथि का मान ग्रहण करना चाहिए ।
विवेचन :- प्राचीन भारत में हिमाद्रि और कुलाद्रि, दो मत व्रततिथियों के निर्णय के लिए प्रचलित थे । हिमाद्रि मत का प्रादर उत्तर भारत में था और कुलाद्रि मत का दक्षिण भारत में था । हिमाद्रि मत में वैदिक प्राचार्य तथा कतिपय श्वेताम्बराचार्य परिगणित हैं । हिमाद्रि मत में साधारणतः व्रततिथि का मान दस घटी प्रमाण स्वीकार किया गया है । हिमाद्रि मत केवल व्रतों का निर्णय ही नहीं करता for a सामाजिक, पारिवारिक व्यवस्थाओं का प्रतिपादन भी करता है । हिमाद्रि मत के उद्धरण देवोपुराण, विष्णुपुराण, शिवसर्वस्व भविष्य एवं निर्णय सिंधु आदि ग्रन्थों में मिलते हैं ।
इन उद्धरणों को देखने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में उत्तर भारत में इसका बड़ा प्रचार था । पारिवारिक और सामाजिक जीवन की अर्थव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, जीवनोन्नति के लिए विधेय अनुष्ठान आदि का निर्णय उक्त मत के आधार पर हो प्रायः उत्तर भारत में किया जाता था ।
ऋषिपुत्र की संहिता के कुछ उद्धरण भी इस मत में समाविष्ट हैं । हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्ररूपित नियम भी इसी मत में गिनाये गये हैं । गर्ग, वृद्धगर्ग और पाराशर के वचन भी हिमाद्रि मत में शामिल हैं ।
कुलाद्रि मत दक्षिण भारत में प्रचलित था । इस मत की द्रविड संज्ञा भी पायी जाती है । दिगम्बर जैनाचार्यों की गणना भी इसी मत में की जाती थी, किन्तु प्रधान रूप से केरल पक्ष ही इसमें शामिल था । इस मत के अनुसार वही तिथि व्रत के लिए ग्राह्य मानी जाती थी, जो सूर्योदयकाल में छह घटी हो । यों तो इस मत में भी कई शाखा, उपशाखाएं प्रचलित थीं, जिनमें व्रत तिथि की भिन्न-भिन्न घटिकाए परिगणित की गई हैं ।
ज्योतिष शास्त्र में वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष और दिवस ये छह भेद काल के बताए हैं। वर्ष के पांच भेद हैं--सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और बार्हस्पत्य | हेमाद्रि मत में सौर, चांद्र भौर बार्हस्पत्य- ये तीन भेद ही वर्ष के माने हैं ।