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व्रत कथा कोष
अर्थ :-रत्नत्रय व्रत भाद्रपद, चैत्र और माघ मास में किया जाता है । इन महीनों के शुक्ल पक्ष में द्वादशी तिथि को व्रत धारण करना चाहिए तथा एकाशन करना चाहिए । त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा का उपवास करना; तीन दिन का उपवास करने की शक्ति न हो तो कांजी आदि लेना चाहिए । रत्नत्रय व्रत के दिनों में किसी तिथि की वृद्धि हो तो एक दिन अधिक व्रत करना एवं एक तिथि की हानि होने पर एक दिन पहले से लेकर व्रत समाप्ति पर्यन्त उपवास करना चाहिए। यहां पर भी तिथिहानि और तिथिवृद्धि में पूर्व क्रम ही समझना चाहिए।
__विवेचन :- रत्नत्रय व्रत के लिए सर्वप्रथम द्वादशी को शुद्धभाव से स्नानादि क्रिया करके स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण कर जिनेन्द्र भगवान का पूजन अभिषेक करे । द्वादशी को इस व्रत की धारणा और प्रतिपदा को पारणा होती है। अतः द्वादशी को एकाशन के पश्चात् चारों प्रकार के आहार का त्याग कर, विकथा और कषायों का त्याग करे । त्रयोदशी और पूर्णिमा को प्रोषध तथा प्रतिपदा को जिनाभिषेकादि के अनन्तर किसी अतिथि या किसी दुःखित-बुभुक्षित को भोजन कराकर एक बार आहार ग्रहण करे । अपने घर में ही अथवा चैत्यालय में जिनबिम्ब के निकट रत्नत्रय यन्त्र की भी स्थापना करे ।
द्वादशी से लेकर प्रतिपदा तक पांचों ही दिनों को विशेष रूप से धर्म ध्यान पूर्वक व्यतीत करे। प्रतिदिन त्रैकालिक सामायिक और रत्नत्रय विधान करना चाहिए । प्रतिदिन प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल में "ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः" इस मन्त्र का जाप करना चाहिए । इस व्रत को १३ वर्ष तक पालने के उपरान्त उद्यापन कर देना चाहिए। यह व्रत की उत्कृष्ट विधि है। इतनी शक्ति न हो तो बेला करे तथा आठ वर्ष व्रत करके उद्यापन कर देना चाहिए। यह व्रत की मध्यम विधि है । यदि इस मध्यम विधि को सम्पन्न करने की भी शक्ति न हो तो त्रयोदशी और पूर्णिमा को एकाशन एवं चतुर्दशी को प्रोषध करना चाहिए। यह जघन्य विधि है । इस विधि से किये गये व्रत का ३ या ५ वर्ष के बाद उद्यापन कर देना चाहिए । इस व्रत में पांच दिन तक शील व्रत का पालन करना आवश्यक है।