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व्रत कथा कोष
तब चारों मिल रचो उपाय, घेर लियो मुनिवर को जाय । लागे दुष्ट करन उपचार, जाके पाप न वारा पार ।। १३४॥
काठ घास वन बहुत मंगाय, मंडप बडो कियो तह जाय । रच्यो यज्ञ नर मेधक जाल, जापे है जीवन को घात ।। १३५ ।।
नाशै धर्म पाप अधिकाय, कारन करिनि जो नरके जाये । प्रस्थि चाम मृत जीव बटोरि, करि दोन्हो धुवां टक टोरि ।। १३६ ।।
प्रति उपसर्ग कियो तिन जाय, मुनि मारन को सहज उपाय । तब मुनि द्वं विधि लै संयास, परमेष्टि पद सुमिरियो तास ।। २३७ ।।
शत्रु मित्र दोऊ सम गिने, राग द्वेष नहि धारं मनै । कियो उपसर्ग धरै मुनि ध्यान, रहे अचल मुनि मेरू समान ।। १३८ ||
सहे परिषह दुद्धर घोर, अब यह कथा गई कहुं और । मिथलापुर को बन है जहां, श्रवधिज्ञान श्रुत सागर तहां ॥१३६॥
तिन निशि को देख्यो श्राकाश, श्रवन नक्षत्र कंपित भये त्रास | श्रवधि ज्ञान दृग देख्यो सोय, महा कष्ट मुनिवर को होय ।। १४० ।।
हा हा कार कियो तिन जाय, संकट निपट सहत मुनिराय । इतनी सुनके शिष्य जो ताम, पुष्पदन्त छुल्लक है नाम ।।१४१ ।। पूछी गुरू को शिश नवाय, कौन ठांव गुरू कहो समुझाय । कहै गुरू सुनि बक्ष खगेश, हस्तनागपुर दुष्ट नरेश ।। १४३ ||
तिन उपसर्ग तहां बहु कियो, सात से मुनिवर को दुख दियो । सो स्वामी कैसे क्षय होय, अब उपचार बतावौ सोय ।। १४३॥
तब गुरू कहै सुनौ रे वक्ष, धरनी धर बरकत प्रत्यक्ष । विष्णु कुमार करत तप तहां, रिद्धि विक्रिया उपजी महा ।। १४४ || तिनसो वह निर्वार जु होय, ऐसे वचन कहो मुनि सोय ।
यह सुनि क्षुल्लक गुरू सो कही, श्राज्ञा हो तो जाऊ में तही ।। १४५ ।।