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व्रत कथा कोष
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छन्दगीतका एक मनि सब बिप्र जोते । जैन धर्म प्रभाव सौ ॥ भानु सम मुनि नाश किनो । तिमिर मिथ्या चाव सौ ॥ जीत द्विज मुनि प्राय । गुरु चरणनि तनी बदक करि ॥ तुम प्रसाद महा द्विज । मै जीत पायो इन बली ॥१॥ यह सुनत गुरू हा हा करी । सुत हीन कार्य महा कियो। हते अपने हाथ सब मुनि । मानो करावत कर लियो । तुम बाद थानक जाहु । अजहू रात एकाकी रहौ । तो बचै सब संघ मुनि को । जो परीषह तुम सही ॥२॥
"सोरठा" श्रत सागर मुनि धीर । गयो बाद के थान पर । कायोत्सर्ग शरीर । जोग दियो मनि मेरू ज्यो ।। छाडो रहो अडोल । मन बच काय शुद्ध सो । मुख नहि बोलत बोल । ध्यान धरे भगवन्त को ॥८३॥
"चौपाई" वहां सब विप्रन क्यो व्यो, मान भंग जिनको अति भयो । मुनि के मारन अर्थ उपाय, चारो घर ते निकरे धाय ॥४॥ हाथन से लीने कृपान, मन मे धरे महा दर ध्यान । जब हम मुनि को मारे जाय तब ही शुभ होय अधिकाय ॥८॥ जब हम मुनिन को करै संघार, तो जीवन सफल होय हमार । उन हमरौ सब हरयो मान, अब हम उनको करै निदान ॥८६॥ चले सब मिलि पाये कहां, हतो बाद को जगह जहां । तिहि ठौर देख्यो जो प्राय, श्रु त सागर ठाठो मुनिराय ॥७॥ देख निशंक होय यह खरो, अपने जिय को नेक नहि दुरो। मान भंग जिन हमरो किषो, सो तो विधना याहि दियो ॥८॥