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व्रत कथा कोष
(२) सत्य-क्रोध लोभ भय व हास्य और अनुवीची भाषण ये पांच भावना सत्य की हैं।
(३) अचौर्य शून्यागारवास-दुर्व्यसनी तीव्र कषायी भ्रष्ट मनुष्य से दूर एकान्तवास करना हमेशा आत्मध्यान करना ।
(ब) विमोचित एकान्तवास--सब लोगों से झगड़ा होने से दूर रहना ।
(स) परोपराधीकरण- कोई दुष्ट मनुष्य की जगह पर जाने की प्राज्ञा नहीं है । वहां पर जाने की इच्छा नहीं करना।
आहार शुद्धि-न्यायोपार्जित धन से प्राप्त आहार में सन्तोष करना उसी में तृप्त होना।
स्वधर्मविसंवाद-साधर्मी बन्धुनों से आपस में न झगड़ना अपना काम सरल परिणामों से करने की भावना करना ।
(४) ब्रह्मचर्य-इसकी ५ भावना है । (१) स्त्रियों के साथ प्रेम भाव बढ़ने की बातें न तो सुनना और न ही करना।
(२) उनके मनोहर अंग को न देखना और न विचारना । (३) पहले भोगे हुए पदार्थों को स्मरण न करना ।
(४) कामोद्दीपक रस सेवन न करना (५) अपना शरीर शृगारित न करना।
(५) परिग्रहत्याग :-किसी भी प्रकार का परिग्रह न रखना । उसकी इच्छा न करना पूर्व के परिग्रह का स्मरण न करना आदि की भावना भाना ।
इसका और एक विधान जैन व्रत विधान संग्रह में दिया है । इसमें २० दशमी के २० उपवास करके १६ अष्टमी के १६उपवास और ४ प्रतिपदा के चार उपवास ऐसे ४० उपवास करना । उसमें १० पारणे आते हैं।
एक साथ २५ उपवास करने में एक उपवास एक पारणा इस क्रम से करना श्रेष्ठ है।