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व्रत कथा कोष
उनको नमोस्तु कहकर उनके मुख से धर्मोपदेश सुना, उसके बाद हमें संपत्ति योग है या नहीं ऐसा प्रश्न पूछा।
महाराज ने उत्तर दिया कि तुम उसकी चिन्ता मत करो। तेरे पेट से उत्पन्न होने वाला पुत्र चक्रवर्ती होने वाला है । बाद में उसको पुत्र हुआ जिसका नाम रत्न शेखर रखा। थोड़ा बड़ा होने पर वह वनक्रीड़ा के लिये जा रहा था तब आकाशमार्ग से जाने वाले विद्याधर को उसका रूप देखकर उससे प्रात्मीयता उत्पन्न हुई । वह उसी समय विमान से उतर कर तुरन्त भूमि पर आ गये । उन्होंने अपना परिचय रत्नशेखर को बताया। तब उसने उनको परम मित्र माना और बोला :
___"मैं मेरू पर्वत पर वंदना के लिये जा रहा हूं । तुम मेरे साथ चलो।" रत्नशेखर ने उत्तर दिया "मेरा कोई विरोध नहीं पर आप मुझे विमानविद्या सिखायोगे तो मैं आप के साथ आऊंगा।" विद्याधर मान गया। उसने उसको विद्या सिखायी । बाद में दोनों विमान में बैठकर अढाईद्वीप के समस्त जिनमन्दिरों के दर्शन के लिये निकले।
रास्ते में विजयाद्ध पर्वत के ऊपर सिद्धकूट चैत्यालय के दर्शन पूजन स्तवन कर रहे थे, तब विजयद्वीप के दक्षिण श्रेणी के रथनपुर के राजा की कन्या मदनमंजूषा अपनी सखी के साथ वन्दना के लिये पायी । वहां पर दोनों की दृष्टि एक दूसरे से मिली जिससे उनके मन में प्रेमांकुर उत्पन्न हुआ। और राजकन्या घर गयी।
राजा को यह बात मालम हुयी । तब उसने स्वयंवर की तैयारी की और नाना देशों के राजाओं को आमंत्रित किया। विद्याधर राजा एकत्रित हुये । वहां रत्नशेखर भी आया । मदन मंजूषा ने वरमाला रत्नशेखर के गले में डाल दी।
जिससे विद्याधर राजा सब चिढ़ गये। भूमिपर रहने वालों की विद्याधर से शादी होती नही है । तब वे युद्ध के लिये तैयार हुये पर रत्नशेखर ने उनको परास्त किया। बहुत से राजाओं ने उनका आधिपत्य (दासत्व) स्वीकार किया । उस समय पुण्योदय से उसको चक्ररत्न की प्राप्ति हुयी । उसने षड्खंड की पृथ्वी जीती और उस पर अपना अधिकार जमाया। तब वह अपने माता-पिता के दर्शन को पाया। सुख से राज्य करने लगा।