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व्रत कथा कोष
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चारित्रमती ने फणों से सहित पार्श्वनाथ भगवान की पूजा की तब से हो नाग पञ्चमी का व्रत प्रसिद्ध हो गया।
तब उसने उसको कहा कि मेरा षष्टि का भी व्रत है । मैं व्रत का पालन करने के लिए मेरे गांव जाती हूं क्योंकि बच्चा को अकेला छोड़कर आई हूँ तब उसके पिता ने कहा कि बेटी तुम इस व्रत को यहां ही पालन कर लो जो भी सामान तुम को जरूरत हो मैं उसको लाकर देता हूं। तब वह सब पूजा सामग्री लेकर खेत पर चली गई और विधि सहित पूजा व्रत करने लगी।
इतने में पूर्व के मुनिगुप्त नामक मुनिराज वहां आ गये और कहने लगे कि हे चारित्रमति तेरे पुत्र को तेरी सासू ने सरोवर में डाल दिया है । तब उसने मुनिराज को उपाय पूछा कि अब मैं क्या करू? मुनिराज कहने लगे कि तू अब पद्मावति देवी की और अम्बिका देवी की आराधना कर जिससे तेरे पुत्र को वे देवी सुख रूप लाकर देदेंगी । मुनिवचन प्रमाण मानकर उसने श्रियाल षष्ठि व्रत को पालन किया और देवियों की आराधना की, देवियों ने प्रसन्न होकर उसके पुत्र को सुख से लाकर दे दिया, यह सब देखकर सब को आश्चर्य हुप्रा । राजा ने सुना उसको भी बहुत आश्चर्य हा । वह चारित्रमति को उसके लड़के सहित पालकी में बैठाकर राजमहल में ले गया, राज सभा में सम्मान कर वस्त्राभूषण देकर उसके घर पहुंचाया। वह अपने पिता की आज्ञा लेकर अपने घर वापस लौट आई, वहां उसने अच्छी तरह से पांच वर्ष तक व्रत का पालन किया, अन्त में उद्यापन किया, व्रत के प्रभाव से चारित्रमति समाधिमरण कर स्त्रीलिंग - छेद करती हुई स्वर्ग में देव हुई, पुनः मनुष्य भव धारण कर दीक्षा लेकर मोक्ष गई।
इस कथा को गडरुवेग ने मुनिराज से सुनकर मन में प्रानन्द व्यक्त किया और उसने उस व्रत को स्वीकार किया, घर जाकर व्रत को अच्छी तरह से पालन किया, गरुडवेग के ऊपर पद्मावती देवी कुष्मांडनी देवी प्रसन्न हो गई, देवियों ने उसकी विद्या उस को वापस दे दी, तब गरुडवेग ने विद्याधर लोक में रहकर सुख को भोगा फिर दीक्षा लेकर कर्म काटकर मोक्ष को गया।