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व्रत कथा कोष
किया। तत्पश्चात् मुनिराज को नमस्कार कर अपने पुरजनों के साथ नगर को वापस आये । योग्य काल तक यह व्रत करके उसका उद्यापन किया जिससे उन्हें संसार सुख प्राप्त हया और क्रम से मोक्ष सुख की भी प्राप्ति हुई । इस प्रकार यह इस व्रत का माहात्म्य है ।
अथ दुरितानिवारण व्रत आषाढ़, कार्तिक व फाल्गुन, इन महीनों की शुक्ल अष्टमी के दिन प्रातःकाल प्रतिक स्नानादिक से शुद्ध होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर अपने हाथ में पूजाद्रव्य का सामान लेकर जिन मन्दिर में जावे, तोन प्रदक्षिणा मन्दिर की लगाकर ईर्यापथ शुद्धि वगैरह क्रिया करके भगवान को नमस्कार करे। अखण्डदीप जलावे, अभिषेक पीठ पर चौबीस तीर्थंकर प्रतिमा यक्षयक्षि सहित स्थापन कर पंचामृत अभिषेक करे, चौबीस तीर्थंकर की जयमाला सहित अलग-अलग पूजा करना, जिनवाणी व गुरु की पूजा करे, यक्षयक्षिणियों को अर्घ समर्पण करे क्षेत्रपाल की अर्चना करे।
ॐ ह्रीं अहं वृषभादिचतुर्विशति तीर्थंकरेभ्यो यक्षयक्षि सहितेभ्यो नमः स्वाहा ।
इस मन्त्र से १०८ बार पुष्प लेकर जाप्य करे, १०८ बार णमोकार मन्त्रों का जाप करे, सहस्र नाम का पाठ करे, चौबीस तीर्थंकरों के चारित्र पढ़े, एक थाली में महाअर्घ को हाथ में लेकर मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा लगावे, मंगल आरती उतारे, महाअर्घ्य को भगवान को चढ़ा देवे, फिर सद्पात्रों को दान देवे, उस दिन उपवास रखे, धर्मध्यान से समय निकाले, ब्रह्मचर्य का पालन करे। दूसरे दिन पूजा करके स्वयं पारणा करे । इस प्रकार इस व्रत को प्रत्येक महिने की चार अष्टमी चतुर्दशी को करे, ऐसे चार महीने में सोलह पूजा करके समाप्त करे, चारों ही महीने की अष्टमी चतुर्दशी की पूजा व्रत उपरोक्त प्रकार ही करे।
व्रत समाप्त होने के बाद उद्यापन करे, एक चौबीस तीर्थंकर की प्रतिमा यक्षयक्षि सहित नवीन बनवाकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करावे, पाँच पकवानों से अर्चा करे, दश वायना तैयार करके, उसके अन्दर पान, सुपारी, गंधाक्षत, पुष्प, फल, नारियल, करन्ज्या, हलद, कुंकुम, कर्णभूषण, पादभूषण आदि यथाशक्ति प्राभूषण रखे,