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व्रत कथा कोष
एक वर्ष में चौबीस उपवास करना तपोऽञ्जलि व्रत है । उपवास करने का नियम अष्टमी और चतुर्दशी को ही नहीं है, प्रत्येक महिने में दो उपवास कभी भी किये जा सकते हैं।
विवेचन :-प्राचार्य ने तपोऽजलि व्रत का अर्थ यह किया है कि रात को जल नहीं पीना, ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना, धर्मध्यान पूर्वक वर्ष को बिताना, यह व्रत श्रावण मास की कृष्णा प्रतिपदा से किया जाता है । इसका प्रमाण एक वर्ष है। व्रत को करने वाला दि. जैन मुनि या दि. जैन प्रतिमा के समक्ष बैठकर व्रत को विधिपूर्वक ग्रहण करता है । दो घड़ी सूर्य अस्त होने के पूर्व से लेकर दो घटी सूर्योदय के बाद तक जलपान का त्याग करता है । जलपान का अर्थ यहां हलका भोजन नहीं है बल्कि जल पीने का त्याग करना अभिप्रेत है । इस व्रत का धारी श्रावक रात को जल तो पीता ही नहीं, किन्तु ब्रह्मचर्य का भी पालन करता है । यद्यपि कहीं-कहीं स्वदार सन्तोष व्रत रखने का विधान किया है, पर उचित तो यही प्रतीत होता है कि एक वर्ष ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर आत्मिक शक्ति का विकास किया जाय । ब्रह्मचर्य से रहने पर शरीर और मन दोनों स्वस्थ होते हैं ।
वर्षा ऋतु से व्रतारम्भ करने का अभिप्राय भी यही है कि इस ऋतु में पेट की अग्नि मन्द हो जाती है, अतः ब्रह्मचर्य से रहने पर शक्ति का विकास होता है । ब्रह्मचर्य के अभाव में वर्षा ऋतु में नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं, जिससे मनुष्य प्रात्मकल्याण से वंचित हो जाता है । इस ऋतु में रात को जल न पीना भी बहुत लाभप्रद है । नाना प्रकार से सूक्ष्म और बादर जीव जन्तुओं की उत्पत्ति इसी ऋतु में होती है, जिससे रात में पीने वाले जल के साथ वे पेट में चले जाते हैं । भयंकर व्याधियां भी वर्षा ऋतु की रात में जल पीने से हो जाती हैं। तपोऽञ्जलि व्रत में प्रत्येक मास में दो उपवास स्वेच्छा से किसी भी तिथि को करने चाहिए।
प्रत्येक महिने की शुक्लपक्ष की अष्टमी और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का नियम इस व्रत के लिए बताया गया है, परन्तु यह कोई आवश्यक नहीं कि यह व्रत इन दोनों दिनों में होना ही चाहिए । प्रत्येक पक्ष में एक उपवास करना आवश्यक है, एक ही पक्ष में दो उपवास नहीं करने चाहिए । जो लोग अष्टमी और चतुर्दशी का