________________
प्रत कथा कोष
[ २५५
चन्द्र के मन में एक बुद्धि उत्पन्न हुई कि इसमें से सुन्दर ऊंची मनोहर एक मूर्ति का निर्माण किया जाय । और उसकी पूजा की जाय । ऐसा सोचकर राम और लक्ष्मण ने अपने बाण के अग्रभाग से पर्वत पर १८ धनुष ऊंची ऐसो मूर्ति को निकाला (बनाया) और बहुत दिन तक उसकी पूजा अर्चना अभिषेक आदि किया।
थोड़े दिन के बाद रावण ने सीता का हरण कर लिया जिससे दोनों भाई दुःखी होकर जंगल में उसे ढूढ़ने के लिये निकल पड़े।
एक दिन रामचन्द्रजी से सुग्रीव राजा मिले । रामचन्द्रजी ने नकली सुग्रीव को युक्ति से जीतकर सच्चे सुग्रीव को राज्य दिलाया। इसलिये सुग्रीव जामुवंत, नल, नील, अंगद, प्रभास व हनुमान की सहायता से रामचन्द्रजी व लक्ष्मण लंका गये । वहां पर अर्ध चक्रवति रावण को परास्त किया। और राज्य को विभीषण को देकर वे वापस अपनी अयोध्या नगरी मे आये ।
एक दिन रामचन्द्रजो को उन बाहुबली भगवान की मूर्ति की याद प्रा गयी। उन्होंने पवन कुमार को ऐसी आज्ञा को कि त बाहबली भगवान के पास दण्डक वन में जा, वहां बहुबली की रक्षा के लिये कुछ करके आ। तब वे गये और तीनों ओर तीन बड़े शिलास्तंभ खड़े करके आ गये ।
फिर तो रामचन्द्र हनुमान आदि को वैराग्य हो गया। उन्होंने जंगल में जाकर दीक्षा ली और घोर तपश्चर्या की, जिससे वे मांगोतुगी पर से मोक्ष गये ।
उस समय से तैयार की हुई यह प्रतिमा आज भी है जिसकी आप पूजा करते हो । आप कितने पुण्यशाली हो।
यह कथा पद्मनन्दाचार्य मुनिश्वर के मुख से सुनकर सबको बहुत खुशी हुई । सबने यह व्रत लिया मुनिश्वर ने यह व्रत विधि बतायी । श्रियादेवी ने भी यह व्रत लिया फिर वे मुनिश्वर वहां से निकल गये, अपने स्थान को चले गये । समयानुकूल इस व्रत का सबने पालन किया जिससे वे १६वें स्वर्ग में जाकर देव हुए और वहां पर वह बहुत सुख भोगने लगे।