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________________ १७२ ] व्रत कथा कोष के पास आयी और सब बात बतायी। उसने द्रव्य न लेते हुये कहा :-पुरुष को विकार उत्पन्न करने के लिये मेरे पास जितने प्रयत्न थे, उतने किये पर उस मुनि ने जरासा भी चित्त विकार नहीं लाया । यह सुन सब निराश हुये । उसके बाद तुझे बहुत पश्चाताप हुआ तू अपने आप कहने लगी कि अरे रे ! मैंने मुनि को बिना कारण उपसर्ग किया है । दुष्ट लोगों के कहने पर मैंने यह कार्य किया है । धिक्कार है मेरे जीवन को । कैसो है यह जैनधर्म की महिमा । श्रावक के कुल में जन्म लेना कितना भाग्यशाली है । इस प्रकार तुम्हारे मन में बहुत पश्चाताप हुप्रा । पर बाद में तुझे कोढ़ हो गया और मर कर चौथे नरक में गई। वहां पर १० सागर की आयु बिताकर फिर अनेक भव लेकर अब तूने भद्रशाह के घर जन्म लिया है । वहाँ तुझे कोढ़ हो गया था, उसको पिंगल ने अच्छा किया और उससे विवाह कर तू इधर आ रही थी कि चोरों ने पिंगल को मार दिया । ऐसी तेरी कथा है। जो पाप किया है उसको धर्म कार्य से दूर किया जा सकता है । अतः तू सम्यक्त्व पूर्वक धर्माचरण कर । और आकाश पंचमी व्रत कर तथा उसकी विधि बतायी। इस प्रकार सद्गुरु के मुख से सब वृतांत सुनकर विशाल लक्षी ने यह व्रत किया। जिससे वह मणिभद्र नामक चौथे स्वर्ग में देव हुआ । स्वर्गीय सुख भोगे । वहां उसने जिनकेवली के दर्शन, तीर्थ करों के दर्शन आदि करते हुये सात सागर की आयु पूर्ण की। वहां से मर कर मालव देश में तारामति रानी के पेट से उत्पन्न हुई । उसका सदानन्द नाम रखा । सदानन्द ने बड़ा होने पर श्रावक के १२ व्रतों का पालन करते हुये राज्य सुख का भोग किया। एक दिन नगर के बाहर उद्यान में एक मुनिमहाराज आकर विराजे । तब उनके दर्शन को सदानन्द गया, उनके मुख से धर्मोपदेश सुनने से उसे वैराग्य हो गया। राज्य को त्याग कर जिनदीक्षा ली। उसे घोर तपश्चर्या से शुक्ल ध्यान की प्राप्ति हुई, अन्त में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये ।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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