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व्रत कथा कोष
एक दिन इसी राजगृही नगर के समीप उद्यान (वन) में विपुलाचल पर्वत पर श्रीमद्देवाधिदेव परम भट्टारक श्री १००८ वर्द्धमान स्वामी का समवशरण पाया, जिसके अतिशय से वहां के उपवनों में छह ऋतुओं के फूल-फल एक ही साथ लग गये तथा नदी, सरोवर आदि जलाशय जलपूर्ण हो गये । वनचर, नभचर व जलचर आदि जीव सानन्द अपने-अपने स्थानों में स्वतन्त्र निर्भय होकर विचरने और कोड़ा करने लगे, दूर-दूर तक रोग मरी व अकाल आदि का नाम भी न रहा, इत्यादि अनेकों अतिशय होने लगे। तब वनमाली उन फूल और फलों की डाली लेकर यह आनन्ददायक समाचार राजा के पास सुनाने के लिए गया और विनययुक्त भेंट करके सब समाचार कह सुनाये ।
राजा श्रोणिक यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुवा और अपने सिंहासन से तुरन्त ही उतर कर विपुलाचल की ओर मुंह करके परोक्ष नमस्कार किया। पश्चात् वनपाल को यथेच्छ पारितोषिक दिया और यह शुभ संवाद सब नगर में फैला दिया । अर्थात् घोषणा करा दी कि-महावीर भगवान का समवशरण विपुलाचल पर्वत पर
आया है, इसलिये सब नरनारी वन्दना के लिये चले और राजा स्वयं भी अपनी विभूति सहित हर्षित मन होकर वन्दना के लिये गया । जाते २ मान-स्तम्भ पर दृष्टि पड़ते ही राजा हाथी से उत्तर कर पांच प्यादे के साथ समवशरण में रानी आदि स्वजनपुरजनों सहित पहुंचा और सब ठौर यथायोग्य वन्दना स्तुति करता हुआ और भवित से नम्रीभूत स्तुति करके मनुष्यों की सभा में जाकर बैठ गया । और सब लोग भी यथायोग्य स्थानों में बैठ गये ।
तब मुमुक्षु ( मोक्षभिलाषी ) जीवों के कल्याणार्थ श्री जिनेन्द्र देव के द्वारा मेघों की गर्जना के समान ॐकार रूप अनक्षरवाणो (दिव्यध्वनि) हुई । यद्यपि इस वाणी को सब उपस्थित समाज अपनी-अपनी भाषा में यथासम्भव निज ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार समझ लेते हैं, तथापि गणधर ( गणेश जो कि मुनियों की सभा में श्रेष्ठ चार ज्ञान के धारी होते हैं ) उक्त वाणी को द्वादशांगरूप कथन कर भव्य जीवों को भेदभाव रहित समझाते हैं सो उस समय श्री महावीर स्वामी के समवशरण में उपस्थित गणनायक श्री गौतम स्वामी ने प्रभ की वाणी को सुनकर सभाजनों को सात तत्व, नव पदार्थ, पंचास्तिकाय इत्यादि