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________________ १०४ ] व्रत कथा कोष भावार्थ :-जीवों को व्रत पुण्यफल देते हैं। परन्तु अतिचार सहित व्रत पुण्य-जनक नहीं होते हैं। जैसे धान्य यदि साफ किए न जायें, वे मलयुवत बने रहें, तो वे कभी भी फलवती नहीं होते हैं। उनमें पैदा हो जाने वाले फालतू घास वगैरह साफ करने से ही वे फलवती होते हैं । इसी प्रकार निरतिचार व्रतों से ही पुण्य प्राप्त होता है, सातिचार व्रतों से नहीं। व्रतों के प्राचारण में शिथिलता होना अतिचार है अतिक्रमो मानसशुद्धिहानि : व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः। । तथातिचारं करणालसत्वं भंगो ह्यनाचारमिह व्रतानाम् ।। पु० सि० भावार्थ :-मन की शुद्धि में हानि होना सो अतिक्रम, विषयों की अभिलाषा सो न्यतिक्रम, इन्द्रियों की असावधानी अर्थात् व्रत के प्राचारण में शिथिलता सो अतिचार और व्रत का सर्वथा भंग होना सो अनाचार है। जैसे खेत के बाहर एक बैल बैठा था, उसने विचारा कि निकटवर्ति खेत को चरना सो अतिक्रम, खड़ा हो कर चलना सो व्यतिक्रम, बारी (बाढ़) तोड़ना सो अतिचार, और खेत चरना सो अनाचार है। लिये हुए व्रत की रक्षा पूरे यत्नपूर्वक करनी चाहिये प्राणान्तेऽपि न भंतकव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम् । प्राणान्तस्तक्षरणे दुःखं व्रतभंगो भवे भवे ॥ ' सा० ध० ७-५२ भावार्थ :- गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी, अथवा व्रतदाता- इनकी साक्षीपूर्वक लिए हए किसी भी व्रत को अपने प्राण भी नष्ट हो जाये तो भी नहीं छोड़ना चाहिए । क्योंकि प्राणनाश केवल मरण के समय में ही दुःख का कारण है, परन्तु व्रत का भंग भव-भव में दुःख का कारण है ।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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