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व्रत कथा कोष
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बृहद् मुक्तावली और लघुमुक्तावली व्रत के मध्य में एक मध्यम मुक्तावली व्रत भी होता है । यह ६२ दिनों में पूर्ण होता है, इसमें ४६ उपवास और १३ पारणाएं होती हैं । मध्यममुक्तावली व्रत में भी बहद् मुक्तावली व्रत के मन्त्र का जाप करना चाहिए । पारणा के दिन तीनों ही प्रकार के मुक्तावली व्रत में भात ही लेना चाहिए।
गुरु के समक्ष व्रतग्रहरण करने का आदेशव्रतादानवलत्यागः कार्यो गुरुसमक्षतः । नो चेत्तनिष्फलं ज्ञेयं कुतः शिक्षादिकं भवेत् ।। यो स्वयं व्रतमादत्त स्वयं चापि विमुञ्चति । तद्वतं निष्फलं ज्ञेयं साक्ष्यभावात् कुतः फलम् ।। गरुप्रदृिष्टं नियमं सर्वकार्यरिण साधयेत् । यथा च मृत्तिका द्रोणः विद्यादानपरो भवेत् ।। गुर्वभावतया त्यक्त व्रतं कि कार्यकृद् भवेत् । केवलं मृतिकावेश्म किं कुर्यात् कर्तृवजितम् ।। अतो व्रतोपदेशस्तु ग्राहयो गर्वाननात खल । त्याजश्चापि विशेषेण तस्य साशितया पुनः ।। क्रममुल्लंघ्य यो नारी नरो वा गच्छति स्वयं ।
स एव नरकं -याति जिनाज्ञा गुरुलोपतः ।। अर्थ-गरू के समक्ष ही व्रतों का ग्रहण और व्रतों का त्याग करना चाहिए। गुरु की साक्षी के बिना ग्रहण किये और त्यागे गये व्रत निष्फल होते हैं अतः उन व्रतों से धन-धान्य, शिक्षा प्रादि फलों की प्राप्ति नहीं हो सकती है, जो स्वयं व्रतों को ग्रहण करता है और स्वयं ही व्रतों को छोड़ देता है, उसके ब्रत निष्फल हो जाते हैं । गुरू की साक्षी न होने से व्रतों का क्या होगा? अर्थात् कुछ भी नहीं । गुरू से यथाविधि ग्रहण किये गये व्रतनियम ही सभी कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे भिल्लराज द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसे गुरू मानकर विद्या-साधन करता था,