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व्रत कथा कोष
__ शरीर के नाश होने पर भी यह मात्मा उस प्रकार नष्ट नहीं होता है, जैसे मकान के भीतर का प्राकाश, जो मकान के प्राकार का होता है, मकान के गिरा देने पर भी मूलस्वरूप में ज्यों का त्यों अविकृत रहता है । ठोक इसी प्रकार शरीर के नाश हो जाने पर भी प्रात्मा ज्यों की त्यों मूलरूप में रहता है। इसीलिये प्राचार्यों ने इस ज्ञान, दर्शनमय प्रात्मतत्व को प्राप्त करने का साधन प्रतोपवास आदि को माना है । उपवास करने से इन्द्रियों की उद्दामशक्ति क्षीण हो जाती है, विषय को प्रोर उनकी दौड़ कम हो जाती है। उपवास को प्राचार्यों ने शरीर और प्रात्मशुद्धि का प्रधान साधन कहा है । प्रमाद, जो कि प्रात्मा की उपलब्धि में बाधक है, उपवास से दूर किया जा सकता है । शरीर को सन्तुलित रखने में भी उपवास बड़ा भारी सहायक है। धर्म-ध्यान, पूजा-पाठ और स्वाध्यायपूर्वक उपवास करने का फल तो अद्भूत होता है । प्रात्मा की वास्तविक शक्ति प्रादुर्भूत हो जाती
सम्यग्दृष्टि श्रावक अपने सम्यग्दर्शन व्रत को विशुद्ध करने के लिये नित्यनैमित्तिक सभी प्रकार के व्रत करता है । पञ्चारण व्रतों के द्वारा अपने आचरण को सम्यक् करता हुआ मोक्षमार्ग में अग्रसर होता है । जैनागम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि श्रावक को सर्वदा सावधान रहते हुए प्रात्मशोधन में प्रवृत्त होना चाहिए। यह गृहस्थधर्म भो इस आत्मा को संसार के बन्धन से छुड़ाने में सहायक है । यद्यपि मुनिधर्म धारण किये बिना पूर्ण स्वतन्त्रता इस जीव को नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि गृहस्थधर्म में परावलम्बन अधिक रहता है। अभ्रदेव ने अपने व्रतोद्योतन श्रावकाचार में स्पष्ट लिखा है कि समाधिमरण में सहायक दशलक्षण प्रादि व्रतों को इस जीव को अवश्य धारण करना चाहिए । व्रतों के प्रभाव से समाधिमरण सिद्ध होता है ।
व्रततिधि के निर्णय के लिए विभिन्न मत-- तथा व्रतोद्योते--
रसघटीमतं वापि मतं दशघष्टीप्रमम् । विशनाडीमतं वापि मूले दारुमतद्वये ॥१॥