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प्रत कथा कोष
सप्तमी तिथि के प्रमाण को घटाया तो अष्टमी का प्रमाण आया-(६०० )(१५/१०) = (अहोरात्र - व्रत तिथि के पहले की तिथि) = ४४/५० = अनंकित व्रततिथि ; जो कि पञ्चांग में अंकित नहीं की गयी है। इसमें पञ्चांग अंकित तिथि जोड़ने पर समस्त तिथि का प्रमाण होगा
(अनंकित व्रततिथि + पञ्चांग प्रांकित व्रत तिथि) = (४४/५०) + (७/५४) = ५२/४४ समस्त तिथि का मान । इसका दशमांश = ५२/४४ १० =५/१६/२४ अर्थात् चार घटी अठावन पल और चौबीस विपल प्रमाण या इससे अधिक होने पर तिथि व्रत के लिए ग्राह्य है । यहां पर अष्टमी ७ घटी ५४ पल है, यह मान गणितागत मान से अधिक होने के कारण व्रत तिथि के लिए ग्राहय है। दिनमान २६ घटी ४० पल है, इसका षष्ठांश लिया तो-(२६/४०) ६ = ४/५६/४० अर्थात् ४ घटी ५६ पल ४० विपल हुआ । गुरुवार को अष्टमी ७ घटी ५४ पल है जो कि गणित द्वारा प्रागत मान से ज्यादा है । अतः यह तिथि भी व्रत के लिए सर्व प्रकार से ग्राह य है । माघनन्दी प्राचार्य ने तिथि के लिए और भी अनेक मतों की समीक्षा की है, परन्तु सूक्ष्म विचार से उन्होंने दिनमान का षष्ठांश को दान, अध्ययन, व्रत और अनुष्ठान के लिए ग्राहय बताया है । इतीन्द्रनन्दिवचनम् अधिकायामुक्तं नियमसारे समयभूषणे च
अधिका तिथिरादिष्टा व्रतेषु बुधसत्तमः। आदिमध्यान्तभेदेषु शक्तितश्च विधीयते ॥
अर्थः-यह इन्द्रनन्दी प्राचार्य के वचन है। अधिकतिथि-तिथि के बढ़ जाने पर नियमसार और समयभूषण में व्यवस्था बतायी गयी है कि अधिकतिथि के होने पर विवेकी श्रावकों को आदि, मध्य और अन्त भेदों में- दिनों में शक्तिपूर्वक आचरण करना चाहिए । यह श्लोक पहले भी पाया है। सिंहनन्दी प्राचार्य का ही यह श्लोक है, यद्यपि इसी श्लोक के माशय का श्लोक इन्द्रनन्दी का भी है । पर तिथि ब्यवस्था सिंहनन्दी की ही है। तथाचोक्तं सिंहनन्दिविरचित पञ्चनमस्कारवीषिकायाम-- .