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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
९१ गद्य नमोऽस्तु आचार्य बन्दनायां प्रतिष्ठापनाचार्य भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।( ९ जाप्य )
हे आचार्य परमेष्ठी भगवन् ! नमस्कार हो, मैं आचार्य वन्दना में प्रतिष्ठापन आचार्य भक्ति संबंधी कायोत्सर्ग को करता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा करके ९ बार णमोकार मन्त्र का जाप्यकर निम्नलिखित आचार्यभक्ति का पाठ करें।
श्रुत-जलवि-पारगेभ्यः स्व-पर-मत-विभावना-पटु-मतिभ्यः । सुचरित-सपो-निधिभ्यो नमो गुरुभ्यो गुण-गुरुभ्यः ।।१।।
अन्वयार्थ— जो ( श्रुतजलधि ) श्रुत रूप समुद्र के ( पारगेभ्यः ) पारगामी/परंगत ( स्वपरमत-विभावना ) स्वमत और परमत के विचार करने में ( पटुमतिभ्यः ) निपुण बुद्धि वाले हैं ( सुचरिततपोनिधिभ्यो ) सम्यक् चारित्र और तप के खजाने हैं ( गुणगुरुभ्यः ) गुणों में महान् हैं ( गुरुभ्यो ) ऐसे गुरुजनों के लिये ( नमः ) नमस्कार हो।
छत्तीस-गुण-समग्गे पंच-विहाचार-करण संदरिसे। सिस्साणुग्गह-कुसले माइरिए सदा बन्दे ।।२।।
अन्वयार्थ ( छत्तीसगुणसमग्गे ) जो छत्तीस गुणों से पूर्ण हैं ( पंचविहाचारकरणसंदरिसे ) पाँच प्रकार के आचार को पालन करने वाले हैं (सिस्साणुग्गहकुसले ) शिष्यों के अनुग्रह करने में कुशल ( धम्म) जिनधर्म के ( आइरिये ) आचार्य/धर्माचार्य की ( सदा ) सदा ( वन्दे ) मैं वन्दना करता हूँ
गुरु-भत्ति संजमेण च तरंति संसार-सायरं घोरं । छिण्णति अट्ठ-कम्मं जम्मण-मरणं ण पावेंति ।। ३।।
अन्वयार्थ ( गुरुभत्ति ) गुरुभक्ति ( संजमेण च ) और संयम से ( घोरं ) घोर ( संसारसायरं ) संसार सागर से ( तरन्ति ) तिर जाते हैं ( अट्ठकम्मं ) अष्टकर्मों को ( छिपणंति ) छेद देते हैं (य) और ( जम्म मरणं ण पाति ) जन्म-मरण को प्राप्त नहीं होते हैं ।