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पाक्षिकादिप्रतिक्रमण-विधि
गद्य [शिष्यसधर्माणः पाकिादिप्रतिक्रमलेध्वीभिः सिद्धश्रुताचार्य
भक्तिभिराचार्थवन्देरन्] अर्थ ---- [ शिष्य मुनि और साधर्मी मुनि मिलकर पाक्षिक- चातुर्मासिकवार्षिक आदि प्रतिक्रमणों के प्रारंभ में लघु सिद्ध-श्रुत-आचार्य भक्तियों द्वारा आचार्यश्री की वन्दना करें।]
नमोऽस्तु आचार्य-वन्दनायां प्रतिष्ठापन-सिद्ध-भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
[ यहाँ वन्दना करते समय प्रात:काल के समय "नमोस्तु पौर्वाहिक तथा सन्ध्याकाल के समय “आपराहिणक'' शब्द का प्रयोग करना चाहिये ।] ___ अर्थ हे आचार्य देव भगवन् ! नमोस्तु/नमस्कार हो, मैं आचार्य वन्दना में प्रारम्भिक प्रतिष्ठापन सिद्धभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग करता हूँ। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर ९ बार णमोकार मन्त्र का जाप्य करें तथा निम्नलिखित सिद्ध भक्ति पढ़ें।
गाथा सम्मत्त-णाण-दसण-वीरिय सहमंतहेव अवगहणं । अगुरु-लघु-मव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं ।।१।।
अन्वयार्थ ( सिद्धाणं ) सिद्ध परमेष्ठी के ( सम्मत्त ) क्षायिक सम्यक्त्व ( गाणं ) अनन्तज्ञान ( दंसण ) अनन्त दर्शन ( वीरिय ) अनन्त वीर्य ( सुहुमं ) सूक्ष्मत्व ( तहेव ) तथा ( अवगहणं ) अवगाहन ( अगुरुलधुं) अगुरुलघु ( अव्वावाहं ) अव्याबाधत्व ( अट्ठगुणा ) आठगुण ( होति ) होते हैं।
गद्य सवसिद्धे, णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य । णाणम्मि दंसणम्मि यसिद्ध सिरसा णमंसामि ।। २।।