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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका होत फूल फल ऋतु सबै पृथ्वी कांच समान, चरण कमल तल कमल हैं नभते जय-जयवान । मन्द सुगन्य ब्यार पुनि गन्धोदक की वृष्टि, भूमि विषै कण्टक नहीं हर्षमयी सब सृष्टि । धर्मचक्र आगे चले मुनि वसु मंगल सार,
अतिशय श्री अरिहंत के ये चौतीस प्रकार । वद-समि-दिदिय रोधो, लोभापासय-रचन-माहा : खिदि-सयण-मदंतवणं, ठिदि-भोयण-मेय-भत्तं च ।।१।। एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद-कदादो, अइचारादो णियत्तो हं ।।२।।
छेदोवडावणं होउ मज्झं अथसर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थरात्रिक ( दैवसिक ) प्रतिक्रमण-क्रियायां कृत-दोष-निराकरणार्थ पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थ, भाव-पूजावन्दना-स्तव समेतं श्री सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, निष्ठित-करण-वीरभक्ति, चतुर्विंशति तीर्थकर भक्तिः कृत्वा तद्धीनाधिक-दोष-विशुख्यर्थ, आत्म-पवित्री-करणार्थ समाधिभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् । __अन्ययार्थ-(अथ ) अब ( अहम् ) मैं ( सर्व ) सब ( अतिचार विशुद्ध्यर्थ ) अतीचारों की विशुद्धि के लिये ( रात्रिक-दैवसिक ) रात्रिकदैनसिक ( प्रतिक्रमण ब्रियायां ) प्रतिक्रमण क्रियाओं में ( कृतदोषनिराकरणार्थ ) लगे अपने दोषों को दूर करने के लिये ( पूर्वआचार्य-अनुक्रमेण ) पूर्व आचार्यों के अनुक्रम से ( सकल ) समस्त ( कर्मक्षयार्थ ) कर्मों को क्षय करने के लिये ( भावपूजावन्दनास्तवसमेतं ) भावपूजा, भाववंदना व स्तव सहित ( श्री सिद्धभक्ति ) श्री सिद्धभक्ति को ( श्री प्रतिक्रमणभक्ति ) श्री प्रतिक्रमण भक्ति (निष्ठितकरण वीर भक्ति ) निष्ठितकरण वीरभक्ति को और ( चतुर्विशति तीर्थङ्कर भक्तिः ) चतुर्विशति तीर्थंकर भक्ति को ( कृत्वा ) करके ( तत् ) उनमें होने वाले/तत्संबंधी ( होनाधिक ) कमी-अधिक रूप ( दोषनिराकरणार्थ ) दोषों को दूर करने के लिये तथा ( आत्मपवित्रीकरणार्थ ) आत्मा को पवित्र करने के लिये ( समाधिभक्ति ) समाधिक्ति सम्बन्धी ( कायोत्सर्ग ) कायोत्सर्ग को ( करोमि ) मैं करता हूँ।