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विपल ज्ञान प्रबोधिनी टीका व्रत्तों में लगने वाले दोषों को आलोचना करता हूँ। इष्टवियोग, अनिष्ट - संयोग, पीड़ा चिन्तन निदान बंध रूप चार प्रकार के आर्तध्यान में, हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी चार प्रकार के रौद्रध्यान में, इस लोक, परलोक संबंधी इन्द्रिय सुखों की अभिलाषा से, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह चार संज्ञाओं मे, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, आसक्ति/पिपासा, निदान शल्यों में, क्रोधादि चार कषायों में, मिथ्यादर्शन में, तीन अशुभ लेश्या के परिणाम, पाँच सूना रूप आरंभ परिणाम, परिग्रह परिणाम में प्रतिश्रय अर्थात् संस्था, मठ आदि में, मूर्छा परिणाम में, मिथ्यादर्शन परिणाम, डासंयम परिणाम, शारीरिक सुख की अभिलाषा के परिणाम, गीत वादित्र के मनोज्ञ शब्दों के सुनने, कामिनियों के सुन्दररूप को देखने में, सुगंधित चन्दन, कर्पूर, आदि की गंधों मे, तिक्त, मधुर, क्षार आदि रसों में, कोमल, कठोर-स्निग्ध, रूक्ष आदि आठ प्रकार के स्पों में, कायाधिकरण क्रिया में, प्रदोष क्रिया अर्थात् दुष्ट मन-वचन-काय लक्षण क्रिया में, परितापन क्रिया में, पाँच इन्द्रिय, तीन बल और श्वासोच्छ्वास दस प्राणों के वियोग में, इस प्रकार आत-रौद्रध्यान रूप संक्लेश परिणामों से मेरे द्वारा रात्रि में, दिन में जो भी कोई दोष लगा हो, अतिचार, अनाचार हुआ तत्संबंधी मेरा कुकृत्य/दुष्कृत्य मिथ्या हो 1 मैं दोषों के निराकरण के लिये प्रतिक्रमण करता हूँ।
शंका-क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय और क्रोध-मान-माया शल्यों में क्या अन्तर है।
समाधान-क्रोध कषाय से समय परिणामों में मन्दता होने से कर्मों का अल्पस्थिति बंध होता है । परन्तु क्रोध शल्य, बाण की तरह चुभती रहती है । अत: कर्मों की स्थिति बंध उत्कृष्ट/तीव्र होता है। दोनों में तीव्रता और मन्दता से स्थित बन्ध की अल्पता और उत्कृष्टता की अपेक्षा अन्तर है। एक को आदि ले ३३ संख्या पर्यन्त दोषों की आलोचना
पडिक्कमामि भंते ! एक्के भावे अणाचारे, दोसु राय- दोसेस, तीसुदंडेसु, तीसु गुत्तीसु, तीसु गारवेस, चउसु कसाएसु, चउसु सण्णासु, पंचसु महव्यएम, पंचसु समिदीसु, छसुजीव-णिकाएसु, छसु आवासएसु,