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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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पुण्याश्रित हैं तथा ४ अनन्त चतुष्टय - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य ये आत्माश्रित गुण हैं ।
शेपक- श्लोकाः अर्हन्तदेव की महिमा
गत्वा क्षितेर्वियति पंचसहस्त्रदण्डान्,
सोपान - विंशतिसहस्त्र - विराजमाना ।
रेजे सभा धनद यक्षकृता यदीया,
तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय । । १ । । अन्वयार्थ - ( नियति ) आकाश में ( क्षिते ) पृथ्वी से ( पंचसहस्रदण्डान् ) पाँच हजार धनुष [ ऊपर ] ( गत्वा ) जाकर ( सोपानविंशति सहस्र विराजमाना ) बीस हजार सीढ़ियाँ सुन्दर हैं ऐसी ( यदीया ) जिनकी ( सभा ) समवशरण सभा ( धनद यक्षकृता ) कुबेर रचित हैं उस सभा में ( रेजे) शोभायमान ( तस्मै ) उन ( त्रिभुवन प्रभवे ) तीन लोक के नाथ (जिनाय ) जिनेश्वर के लिये ( नमः ) नमस्कार हो ।
भावार्थ- आकाश में पृथ्वी से ५००० धनुष ऊपर जाकर सुन्दर २० हजार सीढ़ियों पर तीन लोक के नाथ जिनदेव की कुबेररचित समवशरण सभा हैं । उस समवशरण सभा में जो विराजमान हैं उन तीर्थंकर लिये नमस्कार हो ।
समवशरण मंडप की रचना सालोऽथ वेदिरथ वेदिरथोऽपि सालो,
वेदिश्च साल इह वेदिरथोऽपि साल:
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वेदिन भाति सदसि क्रमतो यदीये,
प्रभु
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तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाथ ।। २ । । अन्वयार्थ -- ( यदीये) जिनके समवशरण में ( साल: ) कोट पश्चात् ( वेदिः ) वेदी ( अथ ) पश्चात् ( वेदिरतः अपि शाल: ) पुनः वेदी और फिर शाल / कोट (च ) और ( वेदिः ) वेदी ( शाल ) कोट ( इह ) इस प्रकार ( वेदिरथोऽपि शालः ) पुनः वेदी फिर शाल (च) और ( वेदिः ) वेदी ( क्रमतः ) क्रम से ( भाति सदसि ) सभा में शोभायमान है ( तस्मै )