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________________ ४३२ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( प्रजायते ) होती है ( ससलिल-जलधर पटल ध्वनितम् इव ) सजल मेघ पटल की गर्जना के समान ( प्रवितत-अन्तर-आशावलयं ) दिशाओं के अन्तराल को व्याप्त करने वाली होती हैं। भावार्थ-समवशरण में जिनेन्द्र का दिव्यध्यान पानी से भरे बादलो को गर्जना के समान, दशों-दिशाओं के समूह में व्याप्त व कर्णप्रिय, हदयहारी/मनको सुख देने वाली एक-एक योजन तक गूंजती हैं । सिंहासन स्फुरितांशु-रत्न-दीधिति-परिविच्छुरिताऽ मरेन्द्र - चापच्छायम् । ध्रियते मृगेन्द्रवर्यैः स्फटिक-शिला-घटित-सिंह-विष्टर-मतुलम् ।। ५९।। __ अन्वयार्थ—( स्फुरित अंशुरत्न-दीधिति-परिविच्छुरित-अमरेन्द्रचापच्छायं ) देदीप्यमान किरणों वाले रत्नों को किरणों से इन्द्रधनुष की कान्ति को धारण करने वाला ( अतुलम् ) अनुपम ( स्फटिक शिला घटित सिंह विष्टरम् ) स्फटिक की शिला से निर्मित सिंहासन ( मृगेन्द्रवर्यैः ) श्रेष्ठ सिंहों के प्रतीकों से ( ध्रियते ) धारण किया जाता है। भावार्थ-समवशरण में रंग-बिरंगे विविध मणियों से जड़ित स्फटिक मणि से निर्मित सिंहासन होता है, उस सिंहासन में पाये सिंह के आकार होते हैं, यह सिंहासन प्रातिहार्य है। समवशरण में तीर्थंकर भगवान् सिंहासन से चार अंगुल ऊपर अधर विराजमान होते हैं। यस्येह चतुस्त्रिंशत्-प्रवर-गुणा प्रातिहार्य-लक्ष्यम्यश्चाष्टौ । तस्मै नमो भगवते, त्रिभुवन-परमेश्वरार्हते गुण-महते ।।६०।। __ अन्वयार्थ-( इस ) इस जगत् में ( यस्य ) जिसके ( चतुस्त्रिंशत् प्रवर गुणा ) ३४ अतिशय श्रेष्ठ गुण ( च ) और ( अष्टौ प्रातिहार्य लक्ष्म्यः ) आठ प्रतिहार्य लक्ष्मियाँ हैं ( तस्मै ) उन ( गुण महते ) गुणों से महान् देवाधिदेव ( भगवते ) भगवान् ( त्रिभुवन परमेश्वर अर्हते) तीन लोक के नाथ अर्हन्त परमेष्ठी को ( नमः ) नमस्कार हो । भावार्थ-चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और चार अनन्त चतुष्टय ४६ गुणों से अर्हत् परमेष्ठीपद में शोभायमान, तीन लोक के स्वामी अर्हन्त परमेष्ठी को नमस्कार हो । अर्हन्त परमेष्ठी के ४२ गुण बाह्य,
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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