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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ४२७ के भार से झुकी हुई, नाना प्रकार के शालि, ब्रीहि आदि धान्यों से व्याप्त ऐसे मालूम होती जैसे रोमाञ्च को प्राप्त हो उठी हो।। शरदुदय - विमल - सलिलं, सर इवगगनं विराजते विगतमलम् । जति चदिशास्तिमिरिक, निगारत इति जिाताभावं सद्यः ।।४८।। अन्वयार्थ ( शरदुदय-विमल-सलिलं सर इव विगत मलं गगनं ) शरद ऋतु के काल में निर्मल सरोवर के समान धूलि आदि मल से रहित आकाश ( विराजते ) सुशोभित होता है ( च ) और ( दिश: ) दिशाएँ ( सधः ) शीघ्र ही ( तिमिरिकां जहति ) अंधकार को छोड़ देती हैं तथा ( विगतरज प्रभृति जिह्मताभावं ) धूलि आदि की मलिनता के अभाव को प्रकट करती हुई शीघ्र निर्मल हो जाती हैं। भावार्थ--तीर्थकर परमदेव के विहार काल में जिसका कीच नीचे बैठ गया है ऐसे शरद ऋतु के तालाब के समान आकाश बादलों रहित स्वच्छ व निर्मल हो जाता है तथा दशों दिशाएँ भी अंधकार व मलिनता से रहित स्वच्छ हो जाती हैं। कहा भी है “निर्मलदिश-आकाश' 1 एतेतेति त्वरितं ज्योति-य॑न्तर-दिवौकसा-ममृतभुजः । कुलिशभृदाज्ञापनया, कुर्वन्त्यन्ये समन्ततो व्याजानम् ।। ४९।। अन्वयार्थ ( कुलिशभृदाज्ञापनया ) इन्द्र की आज्ञा से ( अन्ये अमृतभुजः ) अन्य देव ( त्वरित एत-एत इति ) शीघ्र आओ, शीघ्र आओ इस प्रकार ( ज्योति: व्यन्तर-दिवौकसां ) ज्योतिष्क, व्यन्तर और वैमानिक देवों का ( समन्तत: ) सब ओर ( व्याह्वानम् ) बुलाना ( कुर्वन्ति ) करते हैं । भावार्थ-तीर्थकर प्रभु के विहार काल में इन्द्र की आज्ञा से भवनवासी देव अन्य समस्त देवों को जल्दी आओ, जल्दी आओ कहकर चारों ओर से बुलाते हैं। स्फुर-दरसहस्त्र-रुचिरं, विमल-महारल-किरण-निकर-परीतम् । प्रहसित-किरण-सहस्त्र-धुति-मण्डल-मग्रगामि-धर्म-सुचक्रम् ।।५।। अन्वयार्थ-( स्फुरत्-अर-सहस्र-रुचिरं ) दैदीप्यमान एक हजार आरों से शोभायमान ( विमल-महारत्न किरण-निकर-परीतम् ) निर्मल महारत्नों के किरण समूह से व्याप्त और ( प्रहसित-सहस्र-किरण-द्युति-मण्डलम् )
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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