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३९६ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
भावार्थ- शेष अजितनाथ आदि बीस नीर्थंकर मोह शत्रु को पछाड़कर, केवलज्ञानरूपी किरणों से तीनों लोकों को प्रकाशित कर तीर्थराज सम्मेदशिखर से अनन्त सुख के उत्तम स्थान मुक्ति अवस्था को प्राप्त हुए ।
आद्यश्चतुर्दशदिनैर्विनिवृत्त योगः,
षष्ठेन निष्ठितकृतिर्जिन वर्द्धमानः । शेषाविधूत घनकर्म निबद्धपाशाः,
मासेन ते यतिवरांस्त्वभवन्धियोगाः ।। २६।। अन्वयार्थ-( आध: ) प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव ने ( चतुर्दशदिनैः विनिवृत्त योग; ) चौदह दिनों द्वारा योग निरोध किया ( जिन वर्द्धमानः ) वर्द्धमान जिनेन्द्र ने ( षष्ठेन-निष्ठित कृतिः ) षष्ठोपवासी, बेला-२ उपवास द्वारा योगों का निरोध किया ( शेषा ते यतिवरा: तु मासेन ) शेष २२ तीर्थंकर एक माह के द्वारा योग निरोध कर ( विधूत-घन-कर्म-निबद्धपाशा: ) अत्यन्त दृढ़ कर्मबद्ध रूप जाल को नाश कर मुक्त ( अभवन् ) हुए।
भावार्थ-आदि तीर्थकर वृषभदेव ने आयु पूर्ण होने के चौदह दिनों पूर्व योगों का निरोध किया, अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान स्वामी ने आयु पूर्ण होने के दो दिनों पूर्व योग निरोध किया तथा शेष २२ तीर्थंकरों ने आयु पूर्ण होने के एक माह पूर्व योगों का निरोध किया और सभी तीर्थंकर कर्मों के दृढ़ बन्धन को काटकर मोक्ष अवस्था को प्राप्त हुए। ।
यहाँ योग निरोध से तात्पर्य समवशरण का विघटन होना, विहार व दिव्यध्वनि का बन्द कर एक स्थान पर स्थित हो योग धारण करना लेना चाहिये क्योंकि मन-वचन-काय रूप योगों का निरोध तो १४वें अयोगी गुणस्थान में ही होती है। माल्यानिवाक्स्तुतिमयैः कुसुमैः सुदृब्धा
न्यादाय मानसकरैरभितः किरन्तः । पर्येम आदृतियुता भगवनिषद्याः,
संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः ।। २.७।। अन्वयार्थ-( वाक् स्तुतिमयैः कुसुमैः ) वचनों के स्तुतिमय पुष्पों