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________________ ३९२ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका परिनिर्वृत्तं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधााथासु चागम्य । देवतरु रक्तचन्दन कालागरु सुरभिगोशीः ।।१८।। अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभि धूपवरमाल्यैः । अभ्यर्य गणधरानांच गतादिवं खं च वनभवने ।।१९।। अन्वयार्थ ( अथ हि ) तत्पश्चात् ( जिनेन्द्रं परिनिर्वृत्तं ज्ञात्वा ) वीर जिनेन्द्र को मुक्त हुए जानकर ( विबुधाः ) चारों निकाय के देवों ने ( आशु आगम्य ) शीघ्र आकर के ( देवतरु-रक्त चन्दन-कालागुरु-सुरभिगोशीर्षः ) देवदारु, लाल चन्दन, कालागुरु और सुगन्धित गोशीर्ष-चन्दनों से ( अग्नीन्द्रात् ) अग्निकुमार देवों के स्वामी "अग्नीन्द्र'' के ( मुकुट-अनलसुरभि-धूप वार-माल्यः ) मुकुट से प्राप्त अग्नि, सुगन्धित धूप व उत्कृष्ट मालाओं के द्वारा ( जिनदेहं ) जिनेन्द्र देव के शरीर की ( अभ्यर्च्य ) पूजा की, उनका अग्नि संस्कार या अन्तिम संस्कार किया । तथा ( गणधरान् अपि अभ्यर्च्य ) गणधरों की भी पूजा की इसके बाद ( दिवं खं चवनभवने ) सभी देव स्वर्ग को, आकाश को, वन और भवनों को चले गये। भावार्थ अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के मुक्ति-प्राप्ति का सुसमाचार जानकर चारों निकायों-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी व कल्पवासी देवों ने शीघ्र ही पावानगर के उद्यान में पधारकर, जिनेन्द्रदेव की पूजा की तथा देवदारु, लालचन्दन, कालागुरु और सुगन्धित गोशीर्ष चन्दनों से, अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से निकली अग्नि से तथा सुगंधित धूप और उत्तम मालाओं से भगवान के शरीर का अन्तिम संस्कार किया। पश्चात् उन देवों ने गणधरों की दिव्य पूजा की । उसके बाद कल्पवासी देव स्वर्ग को, ज्योतिषी देव आकाश को, व्यन्तर देव भूतारण्यवन को, भवनवासी देव अपने-अपने भवनों को चले गये। प्रहर्षिणी छन्द इत्येवं भगवति वर्धमान चन्द्रे, यः स्तोत्रं पठति सुसंध्ययोद्धयोहि । सोऽनन्तं परमसुखं नृदेवलोके, भुक्त्वान्ते शिवपदमक्षयं प्रयाति ।। २० ।।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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