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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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में नतमस्तक रहता है, ऐसे पञ्चपरमेष्ठी भगवान् के पावन चरण कमल मेरी रक्षा करें।
प्रतिहार्यैर्जिनान् सिद्धान् गुणैः सूरीन् स्वमातृभिः । पाठकान् विनयैः साधून्, योगांगैरष्टभिः स्तुवे ।। ११ । । अन्वयार्थ – ( प्रातिहार्यैः ) आठ प्रातिहार्यों से ( जिनान् ) अरहन्तों की ( गुणैः ) अष्टगुणों से ( सिद्धान् ) सिद्धों की ( स्वमातृभि: ) अष्ट प्रवचन मातृकाओं से ( सूरीन् ) आचार्यों को ( विनयै: ) चार प्रकार के विनयों के द्वारा ( पाठकान् ) उपाध्यायों की और ( अष्टभिः योग अङ्गः ) आठ प्रकार के योग के अङ्गों से ( साधून् ) साधुओं की ( स्तुवे ) स्तुति करता हूँ ।
भावार्थ — जो अरहन्त भगवान् अशोक वृक्ष, सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, विनि पुष्टि, सिर और दुणिताद इन आठ प्रातिहार्यो से शोभायमान हैं, जो सिद्ध भगवान् सम्यक्त्व, दर्शन, क्षायिक ज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, वीर्य और निराबाधत्व इन आठ गुणों से शोभायमान हैं, जो आचार्य परमेष्ठी समिति व तीन गुप्तियों से शोभित हैं, जो उपाध्याय परमेष्ठी दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की आराधना रूप ४ प्रकार के विनयों से शोभायमान हैं तथा जो साधु परमेष्ठी यम-नियम- आसन प्राणायाम प्रत्याहार - ध्यान-धारणा व समाधि से शोभित हैं उन साधु परमेष्ठी की मैं स्तुति, वन्दना करता हूँ । अञ्चलिका
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इच्छामि भंते! पंचमहागुरु भत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोखेडं, अट्ठ महापाडिहेर संजुत्ताणं, अरहंताणं, अद्रु-गुण- सम्पण्णाणं, उड्डलोय मत्थयम्मि पट्ठियाणं, सिद्धाणं, अट्ठ- पवय- णमठ संजुत्ताणं आइरियाणं, आयारादि सुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, ति रयण-गुण पालणरदाणं सव्वसाहूणं, सया णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगड़गमणं, समाहि-मरणं, जिणगुण-सम्पत्ति होउ मज्झं ।
अन्वयार्थ - ( भंते!) हे भगवन्! मैंने ( पंचमहागुरुभति काउस्सग्गो