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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
जन्म-जरा-मरण-बन्धन- मुक्तान् ) जो समस्त पापा या कलुषित परिणामों के कारण उत्पन्न होने वाले जन्म-जरा-मरण के बन्धन से मुक्त होने वाले हैं ऐसे (युष्मान् ) आप आचार्य परमेष्ठी को ( विशालया भक्त्या ) बड़ी भारी भक्ति से ( विधिना ) विधिपूर्वक ( मुकुलीकृत हस्त-कमल-शोभितशिरसा ) अञ्जलिबद्ध हस्त- कमलों से सुशोभित शिर से ( अभिनौमि ) नमस्कार करता हूँ, मुझे ( शिवम् ) कल्याणरूप ( अचलं) अविनाशी ( अनघ ) पापरहित ( अक्षयं ) क्षय रहित ( अव्याहत - मुक्ति- सौख्यम् अस्तु इति ) कभी नाश नहीं होने वाला मुक्ति सुख प्राप्त हो, इस प्रकार भावना करता हूँ ।
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भावार्थ - इस प्रकार ऊपर कहे गये महान् गुणों से युक्त, गुणों की प्रधानता से शोभायमान, घोर उपसर्ग परीषह में भी स्थिरयोगी, गुणों के धारक होने से लोक में प्रभाव है जो सदा गण में प्रधान नायक पद पर आसीन रहते हैं, जो अलौकिक हैं अर्थात् जिनकी अलौकिक चर्या है, जो पूर्वसंचित कर्मों के विपाक से प्राप्त जन्म-जरा-मरण आदि दोषों से अप्रभावित हैं, ऐसे आचार्य भगवन्तों को मैं विधिपूर्वक दोनों हाथों की अञ्जलि बाँधकर हस्तकमलों से शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ । हे आचार्य भगवन्त ! आपकी स्तुति के प्रसाद से मुझे अक्षय-अविनाशी निर्दोष मुक्ति सुख प्राप्त हो ।
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क्षेपकश्लोकानि
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श्रुतजलधिपारगेभ्यः, स्वपरमतविभावनापदुमतिभ्यः । सुचरित तपोनिधिभ्यो नमो गुरुभ्यो गुणगुरुभ्यः ।। १ ।। अन्वयार्थ - जो ( श्रुतजलधिपारगेभ्यः ) श्रुतरूपी समुद्र के तीर को प्राप्त हैं ( स्वपरमतिविभावनापदुमतिभ्यः ) स्वमत - परमत के विचार करने में जिनकी बुद्धि अत्यंत प्रखर है ( सुचरिततपोनिधिभ्यो ) सम्यक् चारित्र तप, जिनकी निधियाँ हैं ( गुणगुरुभ्यः ) जिनके पास पुष्कल / बहुत मात्रा में गुण हैं ( गुरुभ्यो नमः ) ऐसे गुरुओं को, आचार्यों को नमस्कार हैं ।
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भावार्थ---- जो श्रुतरूपी समुद्र में पारंगत हैं, स्याद्वादमत जैनमत व एकान्तरूप परमत के विचार में, ज्ञान में जिनकी बुद्धि चतुर है, अति प्रखर