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________________ लिपल ज्ञान प्रबोभित्री सीका हो ( काष्ठवत्त्यक्तदेहा: ) काष्ठ/लकड़ी समान हो अपने शरीर से मोह को त्यागकर अभावकाश धारण करते हुए ( ग्रीष्मे ) ग्रीष्म ऋतु में ( सूर्यांशुतप्ता ) जब सूर्य की किरणें संतप्त हों ( गिरिशिखरगता: स्थानकूटान्तरस्था: ) पर्वत के शिखर पर ऊँची टेकरी पर जहाँ गमी अधिक हो, खड़े रहकर वहाँ योग धारण कर तपश्चरण करते हुए ( मोक्षनिःश्रेणिभूताः ) मोक्षरूप मंदिर की ऊपरी मंजिल पर चढ़कर ( मुनिगणवृषभाः ) मुनिसमूह में श्रेष्ठ हुए हैं ( ते ) वे मुनिश्रेष्ठ ( मे ) मुझे / मेरे लिये ( प्रदधुः ) प्रकृष्ट हितकर धर्म देवें। भावार्थ-वर्षा-काल में जब बिजली गिर रही है, पानी बरस रहा है जिन्होंने वृक्षमूल योग धारण किया है और वृक्ष के नीचे अपना योग स्थापन किया है शीत ऋतु में निर्भय हो जिन्होंने अभ्रावकाश योग धारण कर खुले आकाश में अपना स्थान बनाया है तथा ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य संतप्त हो रहा है, आतापन योग धारण कर ऊँचे पर्वतों के शिखर, ऊँची टेकरी आदि स्थानों पर जहाँ अधिक उष्णता लगती है अपना स्थान बनाया है—मुनिसमूह में श्रेष्ठ मुनिराज जो मोक्ष मंजिल के ऊपर पहुँच चुके हैं; वे मुनिश्रेष्ठ मुझे/मेरे लिये प्रकृष्ट अहिंसामयी जिनधर्म प्रदान करें। गिम्हे गिरिसिंहरत्था, बरिसायाले रुक्खमूलरयणीम् । सिसिरे वाहिरसयणा, ते साहू वंदिमो णिच्चं ।।३।। अन्वयार्थ-( गिटे गिरिसिहरत्या ) ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर ( वरिसायाले रुक्खमूल ) वर्षा-काल में वृक्ष के नीचे ( सिसरे ) ठंडी/ शीत ऋतु में ( रयणीसु ) रात्रि में ( वाहिरसयणा ) खुले मैदान में ध्यान करते हैं ( ते साहू ) उन साधुजनों की ( णिचं ) नित्य ( वंदिमो ) वन्दना करता हूँ। भावार्थ-जो निम्रथ वीतरागी साधु ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के शिखर पर अधिक उष्ण स्थानों पर खड़े होकर ध्यान करते हैं, वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे तपश्चरण करते हैं तथा शीत ऋतु में खुले मैदान में रात्रि में ध्यान करते हैं उन साधु श्रेष्ठों/मुनिज्येष्ठों की मैं नित्य वन्दना करता हूँ | गिरिकंदर दुर्गेषु, ये वसंति दिगंबसः । पाणिपानपुटाहारास्ते यांति परमां गतिम् ।।४।।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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