SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिप ज्ञान प्रबोभिरी सीका पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ ( दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहिमरणं ) मेरे दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो तथा ( जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं ) जिनेन्द्रदेव के गुणों की मुझे प्राप्ति हो। भावार्थ-हे भगवन ! मैंने चैत्यभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया अब उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। अधोलोक सम्बन्धी ७ करोड़ ७२ लाख, मध्य लोक सम्बन्धी ४५८ व ऊर्ध्वलोक सम्बन्धी ८४ लाख ९७ ह.२३ जिनालय इस प्रकार तीनों लोकों में जितने भी कृत्रिम, अकृत्रिम जिनालय हैं उन सबकी तीनों लोकों में रहने वाले भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिषी व कल्पवासी इस प्रकार चारों प्रकार के देव दिव्य जल, दिव्य गन्ध, दिव्य अक्षत, दिव्य पुष्प, दिव्य नैवेद्य, दिव्य दीप, दिव्य धूप, दिव्य फलादि अष्ट द्रव्यों से सदा, त्रिसन्ध्याओं में अर्चा, पूजा वन्दना करते हैं, मैं भी सभी कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों की साक्षात् अर्चा करने में असमर्थ हुआ यहाँ रहकर ही उन सबकी सदा अर्चा, पूजा, वन्दना, नमन करता हूँ | इस अर्चा, पूजा के फलस्वरूप मेरे सब दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, उत्तमगति की प्राप्ति हो, समाधिमरण हो तथा जिनेन्द्रदेव के अनुपम गुणसम्पत्ति प्राप्त हो । ।। इति चैत्य भक्तिः ।।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy