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________________ २८८ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ऋषि-वृषभ-स्तुति-मन्द्रोद्रेकित-निर्घोष-विविध-विहग-ध्यानम् । विविध-तपोनिधि-पुलिनंसात्रव-संवरण - निर्जरा - निःस्रवणम् ।। २८।। अन्वयार्थ— अषि-वृषभ-स्तुनि-द-जद्रेविज निर्णोप दिनिध दिहात, ध्यानम् ) ऋषियों में श्रेष्ठ गणधरों की स्तुतियों का गंभीर तथा सबल शब्द ही जिसमें नाना प्रकार के पक्षियों का शब्द है । ( विविध-तपोनिधिपुलिनं ) अनेक प्रकार मुनिराज ही जिसमें पुलिन अर्थात् संसार-सागर से पार करने वाला पुल हैं और जो ( सास्रव-संवरण-निर्जरा-निःस्रवणम् ) आस्रव का संवरण अर्थात् संवर व निर्जरारूपी नि:स्रवण/ निर्झरणों अर्थात् जल के निकलने के स्थानों से सहित है। भावार्थ-जैसे महानद में पक्षियों का शब्द गूंजता रहता है वैसे ही गणधरादि देव जो भगवान की स्तुति करते हुए गंभीर, मनोज्ञ, मनोहर, मधुर शब्दों का उच्चारण करते हैं, वह मधुर पाठ ही अरहन्तदेवरूपी महानद के पक्षियों का गान है। ___जैसे महानद में ऊँचे किनारे होते हैं, जिससे तिरने वाले जीव किनारे पर पहुंच जाते हैं वैसे ही अरहन्तरूपी महानद के किनारे अनेक प्रकारेण तप करने वाले महा मुनिराज हैं । ये मुनिराज संसार-सागर में पड़े जीवों को भेद-विज्ञान की नाव में बैठा, किनारे लगाने वाले हैं। जिस प्रकार नद में पानी अधिक होने पर रोक दिया जाता है और भरा हुआ पानी निकाल दिया जाता है, यह सारी सुविधा वहाँ होती है। उसी प्रकार अर्हन्तदेवरूपी महानद में आस्रव का द्वार तो बन्द हो चुका है, मात्र संवर व निर्जरा से ही यह महानद सदा सुशोभित है। ऐसा यह महानद मेरी आत्मा के आस्रव के द्वार का निरोध कर संवर निर्जरा का मार्ग प्रशस्त करे। गणधर-अक्र-धरेन्द्र-प्रभृति-महा-भव्य-पुण्डरीकैः पुरुषः । बहुभिः स्नातं भक्त्या कलि-कलुष-मलापकर्षणार्थ-ममेयम् ।। २९।। ___ अन्वयार्थ-( गणधर-चक्र-धरेन्द्र-प्रभृति-महा-भव्य-पुण्डरीकै: ) गणधरदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि निकट भव्य पुरुषों में श्रेष्ठ ( बहुभिः पुरुषैः ) अनेकों पुरुषों ने ( कलि-कलुष मल-अपकर्षणार्थ ) पञ्चमकाल के
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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