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________________ २८४ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका स्तुति के फल की प्रार्थना पथातीत श्रीभृता महतां मम । संकीर्तिः सर्वास्त्र - विरोधिनी ।। २२ ।। इति स्तुति चैत्यानामस्तु अन्वयार्थ – ( इति ) इस प्रकार ( स्तुति पथ - अतीत ) स्तुति मार्ग से अतीत ( श्रीभृतां ) शोभा अथवा अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी को धारण करने वाले ( अर्हतां ) अरहन्त भगवान की ( चैत्यानां ) प्रतिमाओं की ( संकीर्तिः ) सम्यक् स्तुति ( मम ) मेरे ( सर्व आस्रव-निरोधिनी ) समस्त आस्रवों को रोकने वाली (अस्तु) हो । भावार्थ - जिन अनन्तचतुष्टय रूप अन्तरङ्ग व समवशरणादि रूप बहिरङ्ग लक्ष्मी को धारण करने वाले अरहन्त भगवान की स्तुति साक्षात् इन्द्र भी करने में समर्थ नहीं है, उन अरहंत भगवान की प्रतिमाओं की मैंने जो स्तुति की हैं, गुणानुवादन किया हैं वह मेरे समस्त कर्मों के आस्रवों को रोकने में समर्थ हो । अर्थात् आस्रव निरोध से संवर पूर्वक निर्जरा हो, अन्त मे मुक्ति की प्राप्ति हो । - - ५. अहन्- महानद-स्तवन अर्हन्- महानदस्य- त्रिभुवन भव्यजन तीर्थ यात्रिक- दुरितप्रक्षालनैक कारणमति लौकिक कुहक तीर्थ मुत्तम तीर्थम् ।। २३ । - - - - - - अन्वयार्थ - ( अर्हत् महानदस्य ) अर्हन्त रूप महानद का ( उत्तमतीर्थं ) उत्कृष्ट तीर्थ - घाट ( त्रिभुवन - भव्य जन तीर्थ यात्रिकदुरित प्रक्षालनएककारणम् ) तीन लोक के भव्यजीव रूप तीर्थयात्रियों के पापों का प्रक्षालन करने, पापों का क्षय करने के लिये एक मुख्य कारण है। ( अतिलौकिक कुहक तीर्थम् ) जो लौकिक जनों के दम्भपूर्ण तीर्थों का अतिक्रान्त करने वाला है । भावार्थ -- नदी का प्रवाह पूर्व दिशा की ओर होता हैं किन्तु जिनका प्रवाह पश्चिम दिशा की ओर हो उनको नद कहते हैं । संसाररूपी नदी का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है भगवान अरहंत का उससे सर्वथा विपरीत हैं । संसारी जीवों का प्रवाह संसार की ओर जा रहा है और अरहन्त भगवान का प्रवाह मोक्ष की ओर जा रहा है अतः यहाँ आचार्य
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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