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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२८३ भावार्थ-व्यन्तर देवों के विमानों में शाश्वत असंख्यात चैत्यालय हैं वे हमारे राग-द्वेष-मोह आदि सर्व दोषों के नाशक हो । अर्थात् व्यन्तर देवों के विमानों में विराजित जिनप्रतिमाओं की भक्ति/वन्दना से हमारे सर्व दोषों का क्षय हो।
ज्योतिषा-मथ लोकस्य भूतोऽदभुत-सम्पदः । गृहाः स्वयम्भुवः सन्ति विमानेषु नमामि तान् ।।२०।।
अन्वयार्थ-( अथ ) अब ( ज्योतिषां लोकस्य विमानेषु ) ज्योतिर्लोक के विमानों में ( स्वयंभुवः ) अर्हन्त भगवान् की ( अद्भुत-सम्पदः ) आश्चर्यकारी सम्पदा से सहित जो ( गृहा: ) चैत्यालय ( सन्ति ) हैं ( भूतये ) अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग विभूति की प्राप्ति के लिये ( तान् ) उनको ( नमामि ) मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-ज्योतिषी देवों के विमानों में स्थित चैत्यालयों को जो अर्हन्त देव की लोक आश्चर्यकारक सम्पदा सहित शोभायमान हैं, मैं अपनी शाश्वत आत्मनिधि की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ।
वन्दे सुर-किरीटाम-मणिच्छायाभिषेचनम् । याः क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चाः सिद्धि-लब्धये ।।२१।।
अन्वयार्थ-( याः ) जो प्रतिमाएँ ( सुर किरीटाग्रमणिच्छायाअभिषेचनम् ) वैमानिक देवों के मुकुटों के अग्रभाग में लगी मणियों की कान्ति द्वारा होने वाले अभिषेक को ( क्रमेण एव ) चरणों से ही ( सेवन्ते ) प्राप्त करती है ( तत् अर्चा: ) पूज्यनीय उन प्रतिमाओं को मैं ( सिद्धिलब्धये ) मुक्ति की प्राप्ति के लिये ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-वैमानिक देव अपने विमानों स्थित प्रतिमाओं के चरणों में मस्तक झुकाकर जिस समय नमस्कार करते हैं तब उनके मुकुटों के अग्रभाग में लगी मणियों की कान्ति जिन प्रतिमाओं के चरणों में ऐसी गिरती है मानों देव मुकुटों के अग्रभाग में लगी मणियों से जिनेन्द्रदेव के चरणों का अभिषेक ही कर रहे हैं । ऐसी जिनेन्द्र प्रतिमाओं को मैं मुक्ति प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ।