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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
भावार्थ – जो कृतकृत्य हैं अर्थात् जिन्होंने चार घातिया कर्मों का क्षय कर दिया है, केवल शुभ कर्म जिनके शेष रह गये हैं ऐसे अरहंत देव की अनुपम तेज- कान्ति से देदीप्यमान प्रतिमाएँ हैं । कृत्रिम - अकृत्रिम जिनालयों में, तलवार, बछीं, दंड, भाला आदि आयुधों / अस्त्रों से रहित, विकार, रहित व केयूर, हार, कुण्डल आदि आभूषणों से रहित वीतराग स्वभाव में स्थित / विराजमान समस्त जिनप्रतिमाओं को मैं समस्त पापों की शान्ति के लिये उनके सन्मुख होकर नमस्कार करता हूँ । उनकी स्तुति करता हूँ । आचार्य वादिराज स्वामी एकीभाव स्तोत्र में भी लिखते हैं
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जो कुदेव छवि हीन वसन भूषण अभिलाख, बैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे ।
तुम सुन्दर बरे कोई, भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होई ।। १९ । ।
कथयन्ति कषाय-मुक्ति-लक्ष्मी, परया शान्ततया भवान्तकानाम् । प्रणमाम्यभिरूप- मूर्तिमन्ति, प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम् ।। १४ । ।
अन्वयार्थ---( भवान्तकानाम् ) संसार का अन्त करने वाले ( जिनानाम् ) जिनेन्द्रदेवों की ( अभिरूप - मूर्तिमंति) चारों ओर से अत्यंत सुन्दरता को धारण करने वाली ( कषाय-मुक्ति- लक्ष्मी ) कषायों के त्याग से अन्तरंगबहिरंग लक्ष्मी की युक्तता को ( परया शान्ततया ) अत्यंत शान्तता के द्वारा ( कथयन्ति ) सूचित करती हैं ऐसी उन ( प्रतिरूपाणि ) जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं को मैं ( विशुद्धये ) विशुद्धि के लिये ( प्रणमामि ) नमस्कार करता हूँ ।
भावार्थ – जन्म-मरणरूप संसार का अन्त करने वाले वीतरागीसर्वज्ञ - हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवन्तों की चारों ओर से अत्यधिक सुन्दरता को धारण करने वाली कषायों के अभाव से अन्तरङ्ग अनन्त चतुष्टय व बहिरङ्ग समवशरण लक्ष्मी की प्राप्ति की दशा को अत्यन्त शान्तता के द्वारा सूचित करने वाली समस्त कृत्रिम - अकृत्रिम प्रतिमाओं को मैं आत्मा की विशुद्धि के लिये नमस्कार करता हूँ ।