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________________ २७२ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका वाली हैं, अमृतमयी है, ऐसी माँ जिनवाणी संसार सागर में डूबते भव्यजीवों की रक्षा करे । इस श्लोक में आचार्यदेव ने जिनधर्म व जिनागम के जयवन्त रहने की भक्तिपूर्ण भावना का उद्घोष किया हैं । तदनु जयताज्जैनी वित्तिः प्रभंग-तरंगिणी, प्रभव- विगम प्रौव्य द्रव्य-स्वभाव-विभाविनी । निरुपम - सुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलम्, विगत- रजसं मोक्षं देयान् निरत्यय- - मव्ययम् ।।३।। अन्वयार्थ -- ( तदनु ) जिनधर्म, जिनागम की स्तुति के बाद ( प्रभङ्ग तरङ्गिणी ) स्यात् अस्ति नास्ति आदि सप्त भंग रूप तरंगों से युक्त तथा ( प्रभव- विगम- ध्रौव्य-द्रव्य-स्वभाव-विभाविनी ) उत्पाद - व्यय, ध्रौव्य रूप द्रव्य के स्वभाव को प्रगट करने वाली ( जैनी वित्ति: ) जिनेन्द्र भगवान् की केवलज्ञानमयी प्रवृत्ति ( जयतात् ) जयवन्त प्रवर्ते । इस प्रकार ( इदं ) ये जिनदेव, जिनधर्म, जिनवाणी और जिनेन्द्र का केवलज्ञान रूप चतुष्टय ( निरुपमसुखस्य ) उपमातीत सुख के ( द्वारं विघट्य ) द्वार को खोलकर (निरर्गलं ) अर्गल रहित करें व ( निरत्ययम् ) व्याधि रहित ( अव्ययम् ) अविनाशी ( मोक्षं) मोक्ष को ( देयात् ) देवें । - भावार्थ- -यहाँ आचार्य देव ने केवलज्ञान को नदी की उपमा दी हैं। यथा नदी लहरों से भरपूर है, उसी प्रकार यह केवलज्ञान रूपी नदी भी सप्तभंगमय वस्तु तत्त्व का ज्ञाता है अतः सप्तभंगरूप हैं । "भङ्ग" शब्द के भाँग लहर, प्रकार, विघ्न आदि अनेक होते हैं, उनमें से यहाँ पर प्रकार वाचक "भङ्ग" शब्द लिया है। तदनुसार वचन के भङ्ग सात प्रकार के हो सकते हैं, उससे अधिक नहीं क्योंकि आठवीं तरह का कोई वचनभङ्ग होता नहीं। सात से कम मानने से कोई न कोई वचनभङ्ग छूट जायेगा I इसका कारण यह है कि किसी भी पदार्थ के विषय में कोई भी बात कही जाती हैं वह मौलिक रूप से तीन प्रकार की होती हैं या हो सकती है. १. " है" ( अस्ति ) के रूप में, २. "नहीं" ( नास्ति ) के रूप में, ३ . न कह सकने योग्य ( अवक्तव्य ) के रूप में ।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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